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________________ अष्टम अध्याय बन्धन एवं मोक्ष बन्धन एवं मोक्ष दार्शनिक चिन्तन जगत में एक ऐसा प्रत्यय है जिसकी चर्चा प्राय: सभी चिन्तन परम्परा एवं धर्मों में देखने को मिलती है। आत्मा और शरीर का एक साथ होना बन्धन तथा एक-दूसरे से अलग होना मोक्ष कहलाता है। असंसारी तथा अविकारी आत्मा शरीर संयोग तथा विकारी बनकर नाना प्रकार के दुःखों को सहन करती है तथा कर्म-प्रभाव से विभिन्न योनियों में भ्रमण करती रहती है। जैसा कि तुलसीदास ने कहा है- “जनमत मरत दुसह दुःख होई," अर्थात् जन्म लेने के समय और मरने के समय असहनीय पीड़ा होती है। अत: जन्म-मरण ही सभी दुःखों की जननी है, ऐसा माना जाता है। यह आत्मा उन बन्धनों को पुरुषार्थहीन बनकर न चुपचाप सहती आयी है,बल्कि उन्हें तोड़ने के प्रयत्न सदा-सर्वदा करती रहती है। बन्धन एवं मोक्ष की स्थिति आत्मा या जीव के लिए उसी प्रकार है, जिस प्रकार सूर्य का बादलों से ढ़क जाना। जब तक सूर्य बादलों से घिरा रहता है, तब तक उसकी प्रकाश किरणें नहीं दिखाई पड़ती हैं, ठीक वैसे ही जीव का चेतना रूपी प्रकाश अविद्या और अज्ञान रूपी काले बादलों से घिरा रहता है। जीव की यह अवस्था ही बन्धन की अवस्था है। जब अज्ञानता और अविद्या रूपी बादल ज्ञान के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं तब जीव को पूर्व स्थिति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। जैन परम्परा में बन्धन एवं मोक्ष आत्मा का अनात्मा से, जड़ का चेतन से, देह का देही से संयोग ही बन्धन है। यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि यह सम्बन्ध कैसे और क्यों होता है? उत्तरस्वरूप कहा जा सकता है कि कर्म-वर्गणा या कर्म-परमाणु जो एक भौतिक द्रव्य है, से आत्मा का सम्बन्धित होना ही बन्धन है। जैसाकि उमास्वाति ने कहा हैकषायभाव के कारण जीव का कर्म-पगलों से आक्रान्त हो जाना ही बन्धन है। इसी प्रकार कर्मग्रन्थ में कहा गया है कि आत्मा जिस शक्ति विशेष से कर्म-परमाणुओं को आकर्षित कर उन्हें आठ प्रकार के कर्मों के रूप में जीव-प्रदेशों से सम्बन्धित रखती है तथा कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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