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आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ
२७१ (च) सयोगी केवली नामक तेरहवें गुणस्थान के समकक्ष अचला, साधुमती तथा धर्ममेधा नामक भूमियाँ हैं।
४. गुणस्थानों तथा भूमियों दोनों की इस बात से सहमति है कि साधक को सर्वप्रथम सम्यक्-दृष्टि का लाभ जरूरी है, तब जाकर विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होती है। तत्पश्चात् क्लेश या कषायों का निवारण होता है। इतना होने पर ही सर्वोत्तम ज्ञान केवल ज्ञान या सर्वज्ञत्व का लाभ होता है।
५. क्लेश निवारण की प्रक्रिया में उपशम और क्षय में दोनों सर्वसम्मत हैं। दोनों परम्पराओं का यह मानना है कि उपशम की प्रक्रिया में उपशान्त दोष जब अपना कार्य करना शुरु करता है तब पतन होता है और ऐसा पतन क्षय की प्रक्रिया में सम्भव नहीं
होता।
अत: दोनों परम्पराओं की यह मान्यता तो स्पष्ट है कि बिना सम्यक्-दृष्टि के योग-साधना के आध्यात्मिक विकास में साधक का प्रवेश असम्भव है। सन्दर्भ
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मोक्खपाहड ४ तथा, बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरांतरः । चित्तदोषात्मविभ्रान्ति: परमात्माऽतिनिर्मल: ।। समाधितंत्र-५। आचारांग १/३-५ मोक्खपाहुड ५,९ वही ५,६,१२ जैन धर्म-दर्शन, पृ०-४९३ जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ,पृ०-४४९ विशेषावश्यकभाष्य, गाथा, १२११-१२१४ स्थानांग-१४, कर्मग्रन्थ, भाग २/२ अन्ये तु मिथ्यादर्शनादिभावपरिणतो बाह्यात्मा, सम्यग्दर्शनादिपरिणतस्त्वन्तरात्मा, केवलज्ञानादिपरिणतस्तु परमात्मा। तत्राद्यगुणस्थानत्रये बाह्यात्मा, ततः परं क्षीणमोहगुणस्थानं यावदन्तरात्मा। तत: परन्तु परमात्मेति। अध्यात्ममतपरीक्षा, १२५ देखिए-आध्यात्मिक विकास-क्रम, पं० सुखलाल संघवी, पृ०- ५५ जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन,पृ० ४५५ गोम्मटसार, जीवकाण्ड-१७ जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ०,४५। गोम्मटसार (जीवकाण्ड), २
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१२. १३.
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