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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
(क) जैन परम्परा में चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक की तुलना बौद्ध परम्परा में स्रोतापनभूमि से की जा सकती है, क्योंकि दोनों में यह माना गया है कि इन अवस्थाओं में कामधातु तो नष्ट हो जाते हैं, परन्तु रूपधातु शेष रह जाते हैं।
(ख) जैन परम्परा के आठवें गुणस्थान से बौद्ध परम्परा के सकृदागामीभूमि की तुलना की जा सकती है, क्योंकि दोनों ही यह मानते हैं कि साधक बन्धन के मूल कारण राग-द्वेष-मोह का प्रहाण करता हुआ क्रमश: क्षीण-मोह-गुणस्थान और अनागामी (बौद्ध परम्परा) भूमि में प्रविष्ट करता है।
(ग) आठवें से बारहवें गुणस्थान की तुलना बौद्ध-परम्परा के अनागामीभूमि से की जा सकती है। जिसमें यह कहा गया है कि साधक अर्हत् पद की प्राप्ति हेतु अग्रसर.होता है।
(घ) जैन परम्परा के सयोगी केवली गुणस्थान तथा बौद्ध परम्परा की अर्हतावस्था दोनों ही समान हैं। दोनों विचारधाराएँ इस भूमि के विषय में अत्यन्त ही निकट हैं।
इसी प्रकार महायान परम्परा में वर्णित आध्यात्मिक विकास की भूमियों का भी समावेश जैन परम्परा के १४ (चौदह) गुणस्थानों में हो जाता है। जो इस प्रकार हैं
(क) जैन परम्परा का पंचम एवं षष्ठ विरताविरत एवं सर्वविरति सम्यक्-दृष्टि और बौद्ध-परम्परा की प्रमुदिताभूमि की तुलना की जा सकती हैं। जिन्हें पूर्ण शील विशुद्धि की अवस्था कहा गया है।
(ख) जैन परम्परा का अप्रमतसंयत्त गणस्थान और बौद्ध परम्परा की विमला और प्रभाकरी भूमि एक समान है। जिसमें अनैतिक आचरण से पूर्णतया मुक्त होने तथा ज्ञानरूपी प्रकाश लोक में फैलाने पर बल दिया गया है।
(ग) अपूर्वकरण आठवाँ गुणस्थान तथा अर्चिष्मतीभूमि दोनों ही क्लेशावरण तथा ज्ञेयावरण के दाह की अवस्था है।
(घ) आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान तक तथा सुदुर्जयाभूमि दोनों को ही साधना के विकास की अत्यन्त ही दुष्कर अवस्था माना गया है।
(ङ) जिस प्रकार बारहवें गुणस्थान की प्राप्ति के अन्तिम चरण में साधक मोक्ष प्रप्ति के योग्य हो जाता है, उसी प्रकार दूरंगमाभूमि में साधक निर्वाण प्राप्ति के योग्य हो जाता है।
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