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________________ आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ २६९ साधुमती जो बोधिसत्व (साधक) इस भूमि में अवस्थान करता है वह कुशल-अकुशल आदि की निष्पत्ति प्रकार को अवितथरूप से अवगत करने में समर्थ होता है।१४१ तत्पश्चात् साधक मनुष्यों के उद्धार के लिए नये-नये उपायों का आलम्बन करता है, धर्म का उपदेश देता है और बोधिसत्व के चार प्रकार के विषय पर्यालोचन का अभ्यास करता है। वे चार प्रकार के पर्यालोचन (प्रतिसंवित्) इस प्रकार हैं-१. धर्म प्रतिसंविद् २. अर्थ प्रतिसंविद् ३. निरुक्त प्रतिसंविद् तथा ४. प्रतिमान-प्रतिसंविद्।१४२ धर्ममेघा आध्यात्मिक विकास की यह अन्तिम भूमि है। चूँकि बोधिसत्व अज्ञान के द्वारा उत्पादित क्लेशरूप अग्नि को धर्ममेघा रूपी वर्षा के द्वारा निर्वाचित करते हैं। इसलिए इस भूमि का नाम धर्ममेघा कहलाता है। बोधिसत्व भूमियों का यह पर्यवसान है। इसमें दश प्रकार की समाधियाँ महत्त्वपूर्ण होती हैं। इस भूमि में ज्ञान पारमिता अधिक प्रधानता रखती है। अन्त में पूर्वोक्त बोधिसत्व को सर्वज्ञज्ञानविशेषाभिषेक नामक समाधि आविर्भूत होती है। बोधिसत्व जब इस समाधि का लाभ करता है तब वह महारत्नराजपद्म नामक आसन पर उपविष्टावस्था में दिखाई पड़ता है।१४३ तुलना जैन एवं बौद्ध दोनों ने ही आध्यात्मिक विकास के सोपान को महत्त्व दिया है। दोनों परम्पराओं में वर्णित आध्यात्मिक सोपानों में जो समानताएँ एवं विभिन्नताएँ हैं, वे निम्नलिखित हैं १. जैन परम्परा में आत्मविकास के सोपानों को जीवसमास या गुणस्थान नाम से अभिहित किया गया है तो बौद्ध परम्परा में भूमि के नाम से विभूषित किया गया है। २. जैन परम्परा में गुणस्थानों की संख्या १४ (चौदह) है,तो बौद्ध परम्परा में हीनयानियों के मत में भूमियों की संख्या ४ तथा महायानी विचारकों के मत में १० (दश) हैं। ३. लेकिन दोनों ही परम्पराओं में आध्यात्मिक विकास के सोपानों की संख्या में अन्तर होने का यह मतलब नहीं है कि दोनों में विभेद है, बल्कि दोनों ही परम्पराओं में मान्य सोपान एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं, यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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