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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन २५८ में चतुर्दश गुणस्थान का समावेश हो जाता है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी दूसरी पुस्तक योगबिन्दु में आध्यात्मिक विकास की पाँच अन्य भूमियों का वर्णन किया है, जो चौदह गुणस्थान एवं उपर्युक्त आठ दृष्टियों का ही संक्षिप्त रूप है। वे पाँच भूमियाँ इस प्रकार हैं५९ १. अध्यात्म २. भावना ३. ध्यान ४. समता और ५. वृत्तिसंक्षय अध्यात्म- आध्यात्म का अर्थ होता है- आत्मा को आत्मा में अधिष्ठित करके रहना। तात्पर्य है कि जो सदैव अपने में ही बना रहता है, अपने में ही रमण करता रहता है, वह अध्यात्म है। अपनी शक्ति के अनुसार अणुव्रत, महाव्रत आदि को स्वीकार करके मैत्री आदि चार भावनाओं का भली-भाँति चिन्तन-मनन करना ही अध्यात्म है।" औचित्य, वृत्तसमवेतत्त्व, आगमानुसारित्व और मैत्री आदि भावना - ये चार अध्यात्म योग तत्त्वचिन्तन के महत्त्वपूर्ण लक्षण हैं। इन पर विचार करने से अध्यात्म का वास्तविक रहस्य भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है। योगबिन्दु में कहा है कि प्राणीजगत के प्रति मैत्री आदि भावनाओं का चिन्तन-मनन और आचरण करने से अध्यात्मयोग पुष्ट होता है । ६१ इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में लिखा है कि इन भावनाओं के चिन्तन से उत्पन्न रसायन से ध्यान की पुष्टि होती है । ६२ भावना - भावतीति भावना, अर्थात् भाव का अर्थ होता है- विचार अथवा अभिप्राय । आचार्य शीलांक ने भाव के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए कहा है कि चित्त का अभिप्राय भाव है । ६३ अतः जिसके द्वारा मन को भावित किया जाए या संस्कारित किया जाए, वह भावना है। ४ भावना को अनुप्रेक्षा के नाम से भी जाना जाता है। आचार्य हरिभद्र ने भावना को ध्यान की पूर्व भूमिका माना है । जब साधक मैत्री आदि चार भावनाओं का मन, वचन और कर्म से चिन्तन करता है तो अशुभ कर्मों की निवृत्ति होती है तथा सद्भावनाओं अथवा समताभाव की वृद्धि होती है । ६५ सूत्रकृतांग में कहा गया है कि जिस साधक की आत्मा भावनायोग से शुद्ध हो गयी है, वह साधक जल में नौका के समान है | जैसे नौका तट पर विश्राम करती है, वैसे ही भावना योग से शुद्ध साधक को भी परमशक्ति प्राप्त होती है। ६६ इस प्रकार भावना कर्म-निरोध में सहायक होती है। साधक के धार्मिक प्रेम, वैराग्य और चारित्र की दृढ़ता की दृष्टि से इनका चिन्तन एवं मनन करना अभीष्ट कहा गया है। ६७ उमास्वाति ने भी तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि ये भावनाएँ चिन्तन, संवेग और वैराग्य की अभिवृद्धि के लिए हैं। " भावनाएँ बारह प्रकार की मानी गयी हैं, जो निम्नलिखित हैं ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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