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________________ आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ २५७ परादृष्टि ___ यह अन्तिम दृष्टि है, जिसकी उपमा चन्द्रमा की प्रभा से दी गयी है, जो शीतल, सौम्य तथा शान्त होता है और सबके लिए आनन्द और उल्लासप्रद होता है। जिस प्रकार चन्द्रमा की ज्योत्सना सारे विश्व को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार परादृष्टि में प्राप्त बोधप्रभा समस्त विश्व को जो ज्ञेयात्म है, उद्योतित करती है। इसमें सभी प्रकार के मन-व्यापार अवरुद्ध हो जाते हैं और आत्मा केवल आत्मा के रूप को ही देखती है, क्योंकि यह आत्मस्वरूप में निष्प्रयास परिरमण की उच्चतम दशा है, जिसका सुख सर्वथा निर्विकल्प होता है। यह बोध की निर्विकल्प दशा है। इस दशा में बोध और सुख की निर्विकल्पता में ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिपुटी और ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की त्रिपदी एकमात्र अभेद आत्मस्वरूप में परिणत हो जाती है, जहाँ द्वैतभाव सर्वथा विलय को प्राप्त कर लेता है। यह अवस्था सासक्तिहीन और दोषरहित होती है। इस अवस्थावाले योगी को सांसारिक वस्तुओं के प्रति न मोह होता है, न आसिक्त और न उसमें किसी प्रकार का दोष ही रह जाता है। इस तरह आचार और अतिचार से वर्जित होने के कारण साधक (योगी) क्षपक श्रेणी अथवा उपशम श्रेणी द्वारा आत्मविकास करता है।५७ क्षपक श्रेणी से अभिप्राय है जो साधक तीव्र संवेग आदि प्रयत्नों द्वारा राग, द्वेष एवं मोह को क्रमश: निर्मल करते-करते उत्तरोत्तर समता-शद्धि की साधना करता है, वह क्षपक श्रेणी में आता है। ऐसे ही जो साधक अपने संक्लेशों को अर्थात् कर्मों का मूलत: क्षय न करके उनका केवल उपशम ही करता है, सर्वथा निर्मूल नहीं कर पाता, वह उपशम श्रेणी में आता है। जिसमें प्रथम श्रेणी का साधक एक ही प्रयत्न में मुक्ति पा जाता है, लेकिन द्वितीय श्रेणी के साधक को मुक्ति के लिए जन्मान्तर लेना पड़ता है। इस दृष्टि में समस्त कषायों के क्षीण होने के कारण साधक को अनेक लब्धियाँ प्राप्त होती हैं और वह मुमुक्षु जीवों के कल्याणार्थ : पदेश देता है। इस क्रम में योगी निर्वाण पाने की स्थिति में योग-संन्यास नामक योग को प्राप्त करता है,५८ जिसके अन्तिम समय में शेष चार अघातीय कर्मों को नष्ट करके वहाँ पाँच अक्षरों के उच्चारण मात्र समय में शैलेशी अवस्था को प्राप्त करता है यानी मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने गुणस्थान के आधार पर आध्यात्मिक विकास की आठ दृष्टियों का वर्णन किया है। परन्तु यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित जान पड़ता है कि गुणस्थान तथा उपर्युक्त आठ दृष्टियों में कोई असमानता नहीं है, क्योंकि प्रथम चार दृष्टियों में प्रथम तीन गुणस्थान, पंचम एवं षष्ट दृष्टि मे चतुर्थ, पंचम और षष्ठ, सप्तम में सप्तम और अष्टम् गुणस्थान तथा अन्तिम यानी अष्टम् दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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