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आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ
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१. अनित्य भावना २. अशरण भावना ३. एकत्व भावना ४. अन्यत्व भावना ५. संसार भावना ६. लोक भावना ७. अशुचि भावना ८. आस्रव भावना ९. संवर भावना १०. निर्जरा भावना ११. धर्म भावना १२. बोधि-दुर्लभ भावना ।
इस प्रकार अध्यात्म विकास के लिए इन भावनाओं का चिन्तन-मनन अत्यन्त आवश्यक है। इससे साधक के वैभाविक संस्कारों का विलय, अध्यात्म-तत्त्व की स्थिरता और आत्मगुणों का उत्कर्ष होता है।
ध्यान- मन को सदा स्थिर रखने और अचंचल बनाने के लिए ध्यान-योग की प्ररूपना की गयी है। तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अन्तर्महर्त पर्यन्त एक ही विषय पर चित्त की एकाग्रता अर्थात ध्येय विषय में एकाकारवृत्ति का प्रवाहित होना ध्यान है।६९ इसी प्रकार आचार्य हरिभद्र ने कहा है-शुभ प्रतीकों के आलम्बन पर चित्त का स्थिरीकरण रूप ध्यान दीपक की लौ के समान ज्योतिर्मान तथा सूक्ष्म और अन्त:प्रविष्ट चिन्तन में संयुक्त होता है। परन्त आचार्य शीलांक ने मन,वचन एवं काय के विशिष्ट व्यापार को ही ध्यान कहा है। पूर्व के अध्याय में ध्यान की विस्तृत चर्चा की गयी है।
समता- अविद्या द्वारा कल्पित इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में की जानेवाली इष्ट-अनिष्ट कल्पना को अविद्या का प्रभाव समझकर उनमें उपेक्षावृत्ति धारण करना समता कहलाता है।७२ साधक में समता के आ जाने से उसके सूक्ष्म कर्मों का क्षय होने लगता है तथा उसकी आकांक्षाओं, आशाओं के तन्तु ट्टने लगते हैं।७३ समता आध्यात्मिक विकास की चरम सीमा मानी जाती है, क्योंकि सम्यक्त्वरूपी जलाशय में अवगाहन करनेवाले पुरुषों का राग-द्वेष रूपी मल सहसा नष्ट हो जाता है।७४
यद्यपि देखा जाए तो समता और ध्यान एक-दूसरे के सापेक्ष दृष्टिगोचर होते हैं, क्योंकि ध्यान के बिना समता की उपलब्धि नहीं हो सकती और समता के बिना ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है। समभाव की प्राप्ति के बिना ध्यान करना आत्म विडम्बना के अतिरिक्त कुछ नहीं है, क्योंकि समत्व अभाव में ध्यान लगाना सम्भव नहीं है। समभाव रूपी सूर्य के द्वारा राग-द्वेष और मोह का अन्धकार नष्ट कर देने पर साधक अपनी आत्मा में परमात्मा का स्वरूप देखने लगता है। ६
__ वृत्तिसंक्षय-वृत्तिसंक्षय अध्यात्मयोग का अन्तिम सोपान है। मन एवं शरीर से उत्पन्न चित्तवृत्तियों को जड़ से नष्ट करना वृत्तिसंक्षय कहलाता है। जिस प्रकार वृक्ष की तना काट देने पर पत्र आदि की उत्पत्ति होने से नहीं रोका जा सकता, वैसे ही संसार रूपी वृक्ष की स्थिति है। जिस प्रकार वृक्ष को समाप्त करने के लिए उसके जड़ को काटना
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