SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन इच्छा मात्र से ही उसका कर्मक्षय होने लगता है।३७ शुभ परिणामों के कारण समताभाव का विकास होता है जिससे साधक के मन में प्रिय वस्तु के प्रति आग्रह नहीं रहता।२८ साथ ही साधक चारित्र-विकास की सारी क्रियाओं को आलस्यरहित होकर करता है, जिनसे बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा अथवा आसक्ति क्षीण हो जाती है और वह धर्म-क्रिया में संलग्न हो जाता है।३९ इस प्रकार बलादृष्टि में साधक के अन्तर्मन में समताभाव का उदय होता है और आत्मशुद्धि सुदृढ़ होती है। दीप्रादृष्टि दीपा चौथी दृष्टि है। जिसकी उपमा आचार्य ने दीपक की ज्योति से दी है। जिस प्रकार दीपक का प्रकाश तृणाग्नि, उपलाग्नि और काष्ठाग्नि की अपेक्षा अधिक स्थिर होता है और जिसके सहारे पदार्थ को देखा जा सकता है, उसी प्रकार दीप्रादृष्टि में होने वाला बोध उपर्युक्त दृष्टियों की अपेक्षा अधिक समय तक टिकता है। परन्तु जिस प्रकार दीपक का प्रकाश हवा के झोंके से बुझ जाता है, उसी प्रकार तीव्र मिथ्यावरण के कारण यह दर्शन भी नष्ट हो जाता है। योगदृष्टिसमुच्चय में इस दृष्टि को प्राणायाम एवं तत्त्वश्रवणसंयुक्त तथा सूक्ष्मबोध भाव से रहित माना गया है। कहा गया है-जिस प्रकार प्राणायाम न केवल शरीर को ही सुदृढ़ बनाता है, बल्कि आन्तरिक नाड़ियों के साथ-साथ मन की मलीनता को भी धोता है, ठीक उसी प्रकार इस दृष्टि में रेचक प्राणायाम की भाँति बाह्य विषयों में ममत्वबुद्धि होने के साथ-साथ पूरक प्राणायाम की भाँति विवेकशक्ति की वृद्धि भी होती है और कुम्भक प्राणायाम की तरह ज्ञानकेन्द्रित होता है। ताराद्वात्रिंशिका में इसे भावप्राणायाम कहा गया है। जो भी साधक इस दृष्टि पर अपना अधिकार कर लेता है वह बिना किसी संदेह के धर्म पर श्रद्धा करने लगता है। उसकी श्रद्धा इतनी प्रबल हो जाती है कि वह धर्म के लिए प्राण का त्याग कर सकता है, लेकिन प्राण की रक्षा के लिए धर्म का त्याग नहीं कर सकता। - अब तक की उपर्युक्त वर्णित दृष्टियाँ ओघदृष्टियाँ हैं। इनमें यदि तत्त्वज्ञान हो भी जाता है तो वह स्पष्ट नहीं होता है,४३ क्योंकि पूर्वसंचित कर्मों के कारण धार्मिक व्रत-नियमों का यथाविधि पालन करने से भी सम्यक् ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती। इसी मिथ्यात्व दोष के कारण इन दृष्टियों के जीवों को अवेद्य-संवेद्य पद कहा गया है, क्योंकि अज्ञानवश जीव अपना आचरण मूढ़वत करता है, जिसके कारण अनेक दुःख उत्पन्न होते हैं। किन्तु संचित एवं संचायमाण कर्मों का छेदन करने तथा सांसारिक कारणों को जानने पर ही सूक्ष्म तत्त्व की प्राप्ति होती है।५ फलत: एक ओर जहाँ संसाराभिमुखता का विच्छेद होता है, वहीं दूसरी ओर अवेद्य-संवेद्य पद भी नष्ट हो जाते हैं और परमानन्द की उपलब्धि होती है। ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy