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________________ आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ २५३ इतना सावधान हो जाता है कि वह सोचने लगता है- कहीं मेरे द्वारा किये गये व्रत, पूजनादि क्रियाकलापों से दूसरों को कष्ट तो नहीं है और इस तरह साधक वैराग्य की तथा संसार की असारता सम्बन्धी योग-कथाओं को सुनने की इच्छा रखते हुए बड़े लोगों के प्रति समताभाव रखता है और उनका आदर-सत्कार करता है।३१ यदि पूर्व से ही साधक के अन्तर्मन में योगी, संन्यासी, साधु आदि के प्रति अनादर का भाव रहता है तो भी वह इस अवस्था में प्रेम और सद्व्यवहार करता है।३२ संसार की असारता तथा मोक्ष के सम्बन्ध में चिन्तन-मनन करने में समर्थ न होते हुए भी निर्दिष्ट अथवा उपदिष्ट कथनों पर श्रद्धा के भाव रखता है।३२ क्योंकि गुरु सत्संग के कारण साधक की अशुभ प्रवृत्तियाँ बन्द हो जाती हैं और संसार सम्बन्धी किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता। फलत: साधक धार्मिक कार्यों में अनजाने में भी अनुचित वर्तन नहीं करता है। किन्तु सत्कार्य में लगे रहने पर भी साधक में अशुभ प्रवृत्तियाँ रहती हैं। कारण कि साधक इस अवस्था में सम्यग्ज्ञान के अभाव में सम्यक् - असम्यक् का अन्तर नहीं जान पाता है, जिसके फलस्वरूप वह जो आत्मा का स्वभाव नहीं है, उसे ही आत्मा का स्वभाव मानता है। इसी अज्ञान के कारण वह सर्वज्ञ के द्वारा कथित तत्त्वों पर श्रद्धा एवं विनीत भाव रखता है। तात्पर्य है कि तारादृष्टि में साधक को अचानक अध्यात्म-उद्बोध की कुछ विशद् झलक दिखाई तो देती है, परन्तु साधक का पूर्व का कोई संस्कार नहीं छूट पाता है, इसलिए साधक के कार्य-कलापों में द्रव्यात्मकता से अधिक विकास नहीं हो पाता है। बलादृष्टि इस तीसरी दृष्टि की उपमा काष्ठाग्नि से दी गयी है। जिस प्रकार काष्ठाग्नि का प्रकाश कुछ स्थिर होता है, अधिक समय तक टिकता है, शक्तिमान होता है ठीक उसी प्रकार बलादृष्टि में उत्पन्न बोध कुछ समय तक टिकता है, स्थिर रहता है, सशक्त होता है और संस्कार भी छोड़ता है। साथ ही साधक में तत्त्वज्ञान के प्रति अभिरुचि उत्पन्न होती है तथा योग-साधना में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होता।३५ एक उदाहरण देते हुए इस दृष्टि को बहुत ही सुन्दर ढंग से निरूपित किया गया है-जिस प्रकार सुन्दर युवक, सुन्दर युवती के साथ नाच-गाना सुनने में तद्रूप होकर अतीव आनन्द की प्राप्ति करता है, उसी प्रकार शान्त स्थिर परिणामी योगी भी शास्त्र-श्रवण देवगुरुपूजादि में उत्साह अथवा आनन्द की प्राप्ति करता है। इस अवस्था में साधक की मनोस्थिरता अत्यन्त सुदृढ़ हो जाती है और वास्तविक लक्ष्य की ओर साधक को उद्भूत किये रहने का प्रयास करती है, जिससे साधक में सत्कर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न होती है। भले ही उसे तत्त्व चर्चा सुनने को मिले या न मिले, परन्तु उसकी भावना इतनी निर्मल एवं पवित्र हो जाती है कि उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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