SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ २५५ स्थिरादृष्टि स्थिरादृष्टि को रत्नप्रभा से उपमित किया गया है। जिस प्रकार रत्न की प्रभा कभी मिटती नहीं, सहजतया प्रकाशमान रहती है, ठीक उसी प्रकार स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोधमय प्रकाश स्थिर रहता है। यहाँ साधक की दृष्टि सम्यक् हो जाती है, भ्रांतियाँ मिट जाती हैं, सूक्ष्मबोध अथवा भेदज्ञान हो जाता है, इन्द्रियाँ संयमित हो जाती हैं, धर्म-क्रियाओं में आनेवाली बाधाओं का परिहार हो जाता है तथा परमात्म स्वरूप को पहचानने का प्रयास करने लगता है। साथ ही आत्मा और पर-पदार्थों की भिन्नता का साधक अनुभव करने लगता है। अब तक पर में स्व की जो बुद्धि थी, वह अचानक आत्मोन्मुख हो जाती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने साधक की इस आन्तरिक अनुभूति को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा है-मोह मेरा कुछ नहीं है, मैं तो एक मात्र उपयोग चेतना रूप हूँ। यों चिन्तन करनेवाले को सिद्धान्तवेत्ता, ज्ञानी, मोहात्मक ममता से ऊँचा उठा हुआ कहते हैं। ८ आगे पुन: कहते हैं-निश्चतरूप से मैं दर्शन-ज्ञानमय, सदा अरूपी, एकमात्र शुद्ध आत्मा हूँ, अन्य कुछ भी परमाणुमात्र मेरा नहीं है।४९ इस प्रकार दृष्टि में सम्यक्त्व आ जाने पर आस्था स्थिर हो जाती है, विश्वास सुदृढ़ हो जाता है तथा जीव दर्शन प्रत्याहार से युक्त कृत्य, अभ्रान्त, निर्दोष एवं सूक्ष्मबोध वाला हो जाता है।५० जिस प्रकार रत्न का प्रकाश कभी मिटता नहीं है उसी प्रकार स्थिरा दृष्टि में प्राप्त बोध नष्ट नहीं होता और साधक का बोध सदाभ्यास, आत्मानुभूति, सत्चिन्तन आदि के द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होता जाता है। कान्तादृष्टि इस दृष्टि की उपमा तारे की प्रभा से दी गयी है। जिस प्रकार तारे की प्रभा आकाश में स्वाभाविक रूप में होती है, अखण्डित होती है। उसी प्रकार कान्ता की दृष्टि का बोध-उद्योत, अविचल, अखण्डित और प्रगाढ़ रूप में चिन्मय आकाश में सहज रूप में प्रकाशित रहता है। इस दृष्टि में साधक को धारणा नामक योग के संयोग से सुस्थिर अवस्था प्राप्त होती है, परोपकार एवं सद्विचारों से उसका हृदय आप्लावित हो जाता है तथा उसके दोष अर्थात् चित्त की विकलता नष्ट हो जाती है।५१ इन्द्रियों के विषयों के शान्त हो जाने तथा धार्मिक सदाचारों के सम्यक् परिपालन से साधक क्षमाशील स्वभाववाला बन जाता है, वह सभी प्राणियों का प्रिय हो जाता है।५२ इस प्रकार साधक को शान्त, धीर एवं परमानन्द की अनुभूति होने लगती है, सम्यक्-ज्ञान की प्राप्ति से उसे स्व और पर वस्तु का बोध होने के साथ-साथ उसमें ईर्ष्या, क्रोध आदि दोषों का सर्वथा नाश हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy