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________________ · जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन २४६ उनकी स्थिति क्षायोपशमिक होती है। साधक उस पर नियंत्रण की क्षमता नहीं रखता है। किन्तु पाँचवे गुणस्थान की प्राप्ति के लिए अनियंत्रित कषायों का उपशान्त होना अत्यावश्यक है, क्योंकि जिस व्यक्ति में वासनाओं एवं कषायों पर नियंत्रण करने की क्षमता नहीं होगी, वह नैतिक आचरण कभी नहीं कर सकता। इसलिए आध्यात्मिक विकासक्रम की इस भूमि में वासनाओं एवं कषायों पर आंशिक नियंत्रण को आवश्यक बताया गया है। आंशिक अवस्था में स्थित व्यक्ति को जैन आचारशास्त्र में उपासक या श्रावक कहा गया है। अतः कहा जा सकता है कि इस गुणस्थान में व्यक्ति सम्यक् चारित्र का पूर्णरूपेण अथवा सूक्ष्मतया पालन नहीं करता बल्कि मोटे तौर पर चारित्र का पालन करता है। स्थूल हिंसा, झूठ आदि का त्याग करते हुए, अपना व्यवहार चलाते हुए आध्यात्मिक साधना में संलग्न रहता है। प्रमत्तसंयत्त गुणस्थान इस छठे गुणस्थान में साधक देशविरति अर्थात् आंशिक विरति से सर्वविरति अर्थात् साधक अशुभाचरण अथवा नैतिक आचरण से पूर्णरूपेण विरत हो जाता है। इस अवस्था में वह पूर्णतया सम्यक् चारित्र की आराधना प्रारम्भ कर देता है। उसका व्रत अणुव्रत न कहलाकर महाव्रत कहलाता है और इसका पालन करनेवाला महाव्रती या साधक कहलाता है। परन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इस अवस्था में स्थित साधक का चारित्र सर्वथा विशुद्ध होता है, अर्थात् उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं आता, बल्कि प्रमादादि दोषों की थोड़ी-बहुत संभावना यहाँ भी बनी रहती है। साधक अपनी आध्यात्मिक परिस्थिति के अनुसार इस भूमिका से नीचे गिर सकता है और ऊपर चढ़ सकता है। जबजब साधक कषायादि प्रमादों पर अधिकार कर लेता है तब-तब वह ऊपर की श्रेणी में चला जाता है और जब- जब कषाय आदि प्रमाद उस पर हावी होते हैं तब-तब वह आगे की श्रेणी से लौटकर पुन: इस श्रेणी में आ जाता है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान के साधक साधनापथ में परिचारण करते हुए आगे बढ़ना तो चाहता है, लेकिन प्रमाद उसमें अवरोध का कार्य करता है। साधकों में साधना के लक्ष्य का भाव तो रहता है, लेकिन लक्ष्य के प्रति जिस सतत् जागरुकता की अपेक्षा होती है, उसका साधक में अभाव होता है । इन्द्रियाँ चंचल होती हैं और अपने विषय की ओर इन्द्रियों की चंचलता के कारण जब-जब साधक लक्ष्य के प्रति सतत् जागरुकता नहीं रख पाता, तब तक वह इस गुणस्थान में आ जाता है और पुनः लक्ष्य के प्रति जागरुक बनकर सातवें गुणस्थान में चला जाता है। इस गुणस्थान में आने के लिए साधक को मोहकर्म की १५ प्रकृतियों का क्षय, उपशम, क्षयोपशम करना होता है। मोहकर्म की १५ प्रकृतियाँ निम्न हैं १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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