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आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ
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है। वह सत्य को सत्य के रूप में तथा असत्य को असत्य के रूप में जानने लगता है। परन्तु इसमें विचार-शुद्धि की विद्यमानता होते हुए भी आचार-शुद्धि का असद्भाव होता है। साधक को यह ज्ञान तो होता है कि अशुभ अशुभ है, लेकिन अशुभ के आचरण से वंचित नहीं रह पाता है। वह हिंसा, झूठ, अब्रह्मचर्य आदि को अनैतिक मानते हुए भी उन अनैतिक कार्यों में संलग्न रहता है, क्योंकि उसका ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक् रूप होता है और आचरणात्मक पक्ष असम्यक् रूप। आत्मा की ऐसी ही अवस्था को जैन परम्परा में अविरत सम्यक्-दृष्टि कहा गया है। किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि अविरत सम्यक्-दृष्टि आत्मा में आत्मसंयम या वासनात्मक वृत्तियों पर किसी न किसी अंश तक संयम होता है, क्योंकि अविरत सम्यक्-दृष्टि में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चार कषायों के स्थायी और तीव्रतम आवेगों का अभाव होता है। कारण कि जब तक इन कषायों के तीव्रतम आवेगों का क्षय या उपशम नहीं हो जाता है तब तक आत्मा को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती। अत: कहा जा सकता है कि चतुर्थ गुणस्थान आत्मा की वह अवस्था है जिसमें मोह की शिथिलता के कारण सम्यक्-श्रद्धा अर्थात् सद्-असद् विवेक तो विद्यमान रहता है, किन्तु सम्यक्-चारित्र का अभाव होता है। इस गुणस्थान में सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करना होता है-१. अनन्तानुबन्धी क्रोध २. अनन्तानुबन्धी मान ३. अनन्तानुबन्धी माया ४. अनन्तानुबन्धी लोभ ५. मिथ्यात्व मोह ६. मिश्र मोह और ७.सम्यक्त्व क्षायिकावस्था है, जिसका पतन नहीं होता । यदि इन कर्मप्रकृतियों का शमन करके आत्मा आगे बढ़ती है तो वह उसकी औपशमिक सम्यकावस्था कहलाती है । इस अवस्था से आत्मा एक अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही अयथार्थता की ओर अग्रसर हो जाती है। इसी प्रकार इन कर्म प्रकृतियों को जब आंशिक रूप से क्षय और दमित किया जाता है तो वह आत्मा की क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अवस्था कहलाती है। इस अवस्था में दमित अवस्थाएँ साधक को यथार्थ दृष्टि से नीचे गिरा देती हैं। देशविरति सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान
देशविरति का अर्थ होता है-वासनामय जीवन से आंशिक रूप में निवृत्ति। अर्थात् देशविरति सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान की अवस्था में साधक पूर्णरूप से सम्यक्चारित्र की आराधना तो नहीं कर पाता है, किन्तु आंशिक रूप से उसका पालन अवश्य करता है। जैसाकि चतुर्थ गुणस्थान में साधक कर्तव्याकर्तव्य का बोध होते हुए भी कर्तव्य-पथ पर आरूढ़ नहीं हो पाता है, जबकि इस पाँचवें देशविरति सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान में साधक कर्तव्य पथ पर यथाशक्ति चलने का प्रयास करता है। चतुर्थ गुणस्थान में व्यक्ति में वासनाओं एवं कषायों के आवेगों के प्रकटन की संभावना रहती है, क्योंकि
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