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________________ २४० जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन दूसरों के पदार्थों में अपनत्व का आरोपण कर उनके भोगों में लिप्त रहना, बहिरात्मा का कार्य है। यह देहात्मबुद्धि और मिथ्यात्व से युक्त होता है। आचारांग में इसे बाल, मन्द और मूढ़ के नाम से वर्णित किया गया है तथा कहा गया है कि ये आत्माएँ ममत्व से युक्त होती हैं तथा बाह्य विषयों में रस लेती हैं। ___ अन्तरात्मा - यह चेतना की आत्माभिमुखी प्रवृत्ति है। वह आत्मा अन्तरात्मा के नाम से जानी जाती है जो बाह्य विषयों से विमुख होकर अपने अन्दर में झाँकती है अर्थात् स्व-स्वरूप में निमग्न रहती है। वह देहात्मबद्धि से रहित होती है, क्योंकि वह भेद-विज्ञान के द्वारा आत्मा और शरीर की भिन्नता को जान लेती है। परमात्मा - राग-द्वेष का विजेता, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी आत्मा परमात्मा कहलाती है। इसकी दो श्रेणियाँ होती हैं-प्रथम अर्हत्, द्वितीय सिद्ध। जीवनमुक्त आत्मा अर्हत् कहलाती है तथा विदेहमुक्त सिद्ध।' आत्मा की उपर्युक्त तीनों अवस्थाओं को डॉ० मोहनलाल मेहता ने निकृष्टतम, उत्कृष्टतम तथा तदनवर्ती तीन मुख्य रूपों में विभक्त किया है। अज्ञान अथवा मोह का प्रगाढ़तम आवरण आत्मा की निकृष्टतम अवस्था है। विशुद्धतम ज्ञान अथवा आत्यन्तिक व्यपगतमोहता आत्मा की उत्कृष्टतम अवस्था है तथा इन दोनों चरम अवस्थाओं के मध्य में अवस्थित दशाएँ तृतीय कोटि की अवस्थाएँ हैं। प्रथम प्रकार की अवस्था में चारित्रशक्ति का सम्पूर्ण ह्रास होता है तथा द्वितीय प्रकार की अवस्था में चारित्रशक्ति का सम्पूर्ण विकास होता है। इन दोनों ही प्रकार की अवस्थाओं के अतिरिक्त चारित्र-विकास की जितनी भी अवस्थाएँ हैं उन सबका समावेश उभय चरमान्तर्वी तीसरी कोटि में होता है। आत्मा के उपर्युक्त विभाजन के आधार पर हम उसे मिथ्यादर्शी आत्मा (बहिरात्मा), सम्यक- दर्शी आत्मा (अन्तरात्मा) तथा सर्वदर्शी आत्मा (परमात्मा) भी कह सकते हैं। यदि हम साधना की दृष्टि से कहें तो पतितावस्था, साधकावस्था और सिद्धावस्था कह सकते हैं। ___ आत्म-विकास अथवा चारित्र-विकास की समस्त अवस्थाओं को जैन-कर्मशास्त्र में चौदह भागों में विभाजित किया गया है, जिसे चौदह गुणस्थान के नाम से जाना जाता है। इन चौदह गुणस्थानों द्वारा जैन दर्शन में आत्मा की नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति की यात्रा को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है जो न केवल साधक की विकासयात्रा की विभिन्न मनोभूमियों का चित्रण करती है, बल्कि विकास यात्रा के पूर्व की भूमिका से लेकर गन्तव्य आदर्श तक की समुचित व्याख्या भी प्रस्तुत करती है। आत्मा के यथार्थ स्वरूप को विकृत या आवृत्त करने का कार्य कर्मों का है। कर्मावरण की घटा ज्यों-ज्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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