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________________ आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ २४१ बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों आत्मिक शक्ति का प्रकाश मन्द होता जाता है। ठीक इसके विपरीत ज्यों-ज्यों कर्मों का आवरण हटता जाता है, त्यों-त्यों आत्मा की शक्ति प्रकट होती जाती है। आत्मशक्ति पर चार प्रकार के आवरण होते हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। इन चारों में मोहनीय रूपी आवरण ही प्रमुख है। मोह की तीव्रतामन्दता पर ही अन्य आवरणों की तीव्रता-मन्दता निर्भर करती है। मोह मुख्य रूप से दो प्रकार के हैं- दर्शनमोह तथा चारित्रमोह। मोह की वह शक्ति जो आत्मा को स्व-स्वरूप या आदर्श का यथार्थ बोध नहीं होने देती जिसके कारण कर्तव्याकर्तव्य का यथार्थ भाव नहीं हो पाता है, दर्शनमोह कहलाता है और जिसके कारण आत्मा स्व-स्वरूप में स्थित होने के लिए प्रयास नहीं कर पाती अथवा नैतिक आचरण नहीं कर पाती है, चारित्रमोह कहलाता है। अत: आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में आत्मा के दो प्रमुख कार्य हैं- १. स्व-स्वरूप और पर-स्वरूप का यथार्थ बोध करना तथा २. स्वरूप में स्थित हो जाना। तात्पर्य है कि दर्शनमोह के समाप्त होने से यथार्थ बोध प्रकट होता है और चारित्रमोह के समाप्त होने पर यथार्थ प्रयास का उदय होकर आत्मा की स्व-स्वरूप में स्थिति हो जाती है। आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति हेतु इन दो मोह रूपी राक्षसों से जूझना पड़ता है। आत्मा और दर्शनमोह तथा चारित्रमोह के संघर्ष में सभी आत्माएँ विजय-लाभ को प्राप्त कर लेती हैं, ऐसी कोई निश्चितता नहीं है। कभी विजय को प्राप्त करती हैं, तो कभी पतनोन्मुख भी हो जाती हैं। कुछ आत्माएँ विजय-लाभ को प्राप्त कर स्व-स्वरूप को प्राप्त करती हैं तो कुछ संघर्ष में डटी रहती हैं और कुछ विमुख हो मैदान से भाग खड़ी होती हैं। जैसा कि विशेषावश्यकभाष्य में सोदाहरण वर्णन आया है- तीन व्यक्ति अपने गन्तव्य की ओर अग्रसर थे, तभी भयानक अटवी में उन लोगों की मुलाकात चोर से हो जाती है। चोर को देखते ही उन तीनों व्यक्ति में से एक तो उनका साथ छोड़कर भाग खड़ा हुआ, दूसरा भागा तो नहीं, परन्तु चोर से संघर्ष करता रहा, फलत: परास्त होकर चोर द्वारा पकड़ा गया। तीसरा जो असाधारण बल एवं कौशल में निपुण था, चोर को परास्त करके अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा। यहाँ हमें तीन प्रकार के व्यक्तियों का चरित्र देखने को मिला। एक वह है जो आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना के मैदान में उतरते तो हैं, लेकिन साहसहीन होने के कारण चुनौती का सामना न कर साधना रूपी कुरुक्षेत्र से भाग खड़े होते हैं। दूसरे व्यक्ति वे होते हैं जो साधना रूपी क्षेत्र में डटे रहते हैं, शत्रु से संघर्ष भी करते हैं, परन्तु साधना के रणकौशल के अभाव में परास्त हो जाते हैं। इसी तरह तीसरे व्यक्ति वे हैं, जो साहसपूर्वक साधना के रणकौशल को जानते हुए कुशलतापूर्वक प्रयास करते हैं तथा विजय श्री ग्रहण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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