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भारतीय योग-परम्परा : एक परिचय
भगवान् में की गयी भक्ति के समान शिव, कल्याणकारी पन्थ योगियों के लिए दूसरा कोई नहीं है।६७ इन सबके अतिरिक्त विभिन्न कथाओं के माध्यम से भी यौगिक क्रियाओं का विवेचन किया गया है, यथा— समाधि द्वारा कपिल की माता का देहत्याग,६८ ध्रुव का ध्यानस्थ होना आदि।६९ योगवासिष्ठ में योग
आध्यात्मिक ग्रन्थों में योगवासिष्ठ का उच्च स्थान है। इस ग्रन्थ के अन्तर्गत ऋषि वसिष्ठ द्वारा राम को दिये हुए आध्यात्मिक उपदेश का बहुत ही सरस एवं सूक्ष्म विवेचन किया गया है। इन्हीं उपदेशों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में योग का भी निरूपण हुआ है। योग का शाब्दिक अर्थ बताते हुए कहा गया है कि संसार-सागर को पार होने की युक्ति ही योग है। योग के तीन प्रभेद हैं
१. एक तत्त्व की दृढ़ भावना २. मन की शान्ति और ३. प्राणों के स्पन्दन का निरोध।
एक तत्त्व की दृढ़ भावना द्वारा मन शान्त होता है और आत्मा में विलीन हो जाता है। इसका अभ्यास तीन प्रकार से किये जाने का विधान है।
ब्रह्म भावना- इसमें यह निश्चय हो जाता है कि संसार भर में केवल एक ही अनन्त आत्मतत्त्व है और सब पदार्थ उसी तत्त्व के नाना नामरूप हैं।
अभाव भावना- पदार्थों को अत्यन्त असत् समझकर उनके पारमार्थिक अभाव की दृढ़ भावना करना।
केवली भाव- वह अवस्था जिसमें योगी स्वयं द्रष्टा होने को भी असत् समझकर अपने उस आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है जिसमें द्वैत का कोई भान ही नहीं
होता।
__ मन के शांत हो जाने पर परमशान्ति आ जाती है और संसार का अनुभव क्षीण हो जाता है। योगवासिष्ठ में अहंकार, चित्त, कर्म, कल्पना, स्मृति, वासना, इन्द्रिय, देह, पदार्थ आदि को मन का ही रूप माना गया है।७२ कहा गया है कि मन के शान्त हो जाने पर ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है और प्राणों का स्पन्दन रुक जाता है।७३ मन ही संसार रूपी माया चक्र का केन्द्रबिन्दु है। मन को जीत लेने पर व्यक्ति सब कुछ जीत लेता है। मन
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