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________________ ध्यान २१७ ने गुरु से कहा-मार्ग में पानी है, अत: जूते उतार लीजिए। तब गुरु ने शिष्य से कहारुक जाओ, स्नान कर लूँ। शिष्य ने कहा- गुरुजी! स्नान करने योग्य पानी पर्याप्त नहीं है। अत: जिस प्रकार उपानह (जूता) को भिगोने के लिए पानी पर्याप्त है, किन्तु स्नान के लिए पर्याप्त नहीं है। इसी प्रकार इस चौथे आरूप्य ध्यान में संज्ञा का अतिसूक्ष्म अंश विद्यमान है, किन्तु संज्ञा का कार्य हो इतना स्थूल भी वह नहीं है। इसीलिए इसको "नैवसंज्ञानासंज्ञायतन' कहा गया है। विसुद्धिमग्गो २१४ में एक दूसरा उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है- किसी श्रामणेर ने पात्र को तेल से मलकर रखा था। किसी स्थविर ने यवागु पीने के लिए श्रामणेर से पात्र माँगा। श्रामणेर ने कहा- पात्र में तेल है। तब स्थविर ने तेल लाने को कहा। श्रामणेर ने कहा कि लाने योग्य तेल नहीं है। अत: तेल से लिप्त पात्र की जो स्थिति है, वही स्थिति नैवसंज्ञानासंज्ञायतन की होती है। जैसे तेल से पात्र के लिप्त होने से यह कहा जाता है कि पात्र में तेल है, किन्तु माँगने पर यह भी कहा जाता है कि तेल नहीं है। इसी प्रकार चतुर्थ ध्यान में साधक न संज्ञाविहीन ही होता और न उसे संज्ञायुक्त ही कहा जा सकता है। इस प्रकार बौद्ध परम्परा में चार रूपावचर तथा चार अरूपावचर ध्यान हैं। परन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि दोनों प्रकार के ध्यानों में कोई असमानता या समानता नहीं है, बल्कि है। हम देखते हैं कि जिस प्रकार रूपावचर ध्यानों में अंगो का प्रहाण होता है उसी प्रकार अरूपावचर ध्यानों में नहीं होता है। वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता आदि रूपावचर के पाँच अंग माने गये हैं। जिनमें द्वितीय रूपावचर ध्यान में प्रीति, सुख तथा एकाग्रता- ये तीन अंग शेष रहते हैं, बाकी दो का प्रहाण हो जाता है। तृतीय ध्यान में प्रीति भी समाप्त हो जाती है और सुख तथा एकाग्रता शेष रहती हैं। चतुर्थ ध्यान में मात्र एकाग्रता ही शेष रह जाती है। इस तरह ध्यान-अंगों में क्रमिक कमी के कारण ध्यान अपेक्षाकृत अधिक शान्त, प्रणीत एवं सूक्ष्म होता जाता है। परन्तु अरूपावचर ध्यानों में अंग-प्रहाण जैसी कोई बात नहीं होती, बल्कि उसमें चित्त की । एकाग्रता समान रूप से उपलब्ध होती है।२१५ चारों आरूप्य ध्यान समान अंगवाले होते हैं फिर भी प्रत्येक बाद का ध्यान पिछले ध्यान की दृष्टि से अपेक्षाकृत अधिक शान्त एवं सूक्ष्म होता है, क्योंकि आलम्बन के बदलने से ध्यान क्रमश: सूक्ष्म एवं सौम्य होता जाता है। इन चार आरूप्य ध्यानों में उपेक्षा तथा चित्त की एकाग्रता समान रूप से उपलब्ध होती है। रूप का अतिक्रमण कर आकाशानन्त्यातन नामक प्रथम अरूप ध्यान चतुर्थ रूप ध्यान की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म एवं शान्त होता है। इसी प्रकार द्वितीय, तृतीय आरूप्य ध्यान क्रमश: एक-दूसरे से सूक्ष्म एवं शान्त होता है। इस प्रकार चारों आरूप्य ध्यान क्रम से शान्ततर, प्रणीततर और सूक्ष्मतर होते हैं। इसके बाद कोई सूक्ष्म अवस्था नहीं होती जिसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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