SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन विज्ञानानन्त्यायतन भी अनन्त होगा । साधक जब आकाशानन्त्यायतन से विज्ञानानन्त्यायतन की ओर अग्रसर होने की भावना करता है तो वह साधक की परिकर्म भावना होती है। इस प्रकार पुनः-पुनः भावना करता हुआ जब साधक आकाश का अतिक्रमण करता है तो वह उसकी उपचार भावना होती है और विज्ञानानन्त्यायतन की प्राप्ति अर्पणा भावना होती है। २१६ आकिंचन्यायतन (तृतीय आरूप्य ध्यान) द्वितीय आरूप्य ध्यान करने के पश्चात् साधक को द्वितीय आरूप्य ध्यान भी दोषयुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि द्वितीय आरूप्य ध्यान प्रथम आरूप्य ध्यान से सामीप्य रखता है, अतः द्वितीय आरूप्य ध्यान के नष्ट होने पर साधक पुनः प्रथम आरूप्य ध्यान आकाशानन्त्यायतन में पहुँच सकता है । इस दृष्टि से साधक को तृतीय आरूप्य ध्यान अपेक्षाकृत अधिक शान्त और सुखमय प्रतीत होता है । फलतः इस ध्यान में साधक विज्ञान को दोषमय जानकर उसका समतिक्रम करने के लिए विज्ञान के अभाव को अपने ध्यान का आलम्बन बनाता है। यह कुछ भी नहीं हैं, यह कुछ भी नहीं हैं, सब कुछ शान्त है, इस भावना को करता हुआ साधक इस तृतीय अरूपध्यान की प्राप्ति करता है । जिस प्रकार कोई व्यक्ति रास्ते में विद्यमान सभामण्डप में भिक्षुओं को देखता है और लौटते समय तक सभा विसर्जित हो जाने के कारण संभामण्डप में किसी भिक्षु को न देखकर उसके मन सभामण्डप शून्य है, खाली है, इतना ही भाव आता है। २१२ ऐसे ही तृतीय आरूप्य ध्यान को प्राप्त साधक 'नहीं है', 'नहीं है' का विचार ध्यान में लाता है । नैवसंज्ञानासंज्ञायतन (चतुर्थ आरूप्य ध्यान ) जब साधक तृतीय आरूप्य ध्यान में पूर्णरूपेण अभ्यस्त हो जाता है तो उसे ऐसा प्रतीत होता है कि तृतीय ध्यान भी द्वितीय आरूप्य ध्यान का निकटवर्ती है, अतः तृतीय आरूप्य ध्यान में गिर जाने की संभावना हो सकती है। जबकि चतुर्थ आरूप्य ध्यान इससे अधिक शान्त एवं सौम्य है। ऐसा सोचकर साधक चतुर्थ ध्यान की ओर अग्रसर होता है। इस ध्यान में अभाव की संज्ञा का भी अभाव होता है । अत: अभाव की संज्ञा का भी अभाव जिसमें है, ऐसा अतिशान्त, सूक्ष्म यह चौथा आयतन है। इस ध्यान में संज्ञा अतिसूक्ष्म रूप में रहती है, इसलिए इसे सर्वथा संज्ञा विमुक्त (असंज्ञा ) भी नहीं कहा जा सकता है और स्थूल में न होने से उसे संज्ञा भी नहीं कह सकते हैं । २१३ इसलिए ही इस ध्यान को नैवसंज्ञानासंज्ञायतन कहा जाता है। एक दृष्टान्त द्वारा इसे बड़े ही सरल तरीके से समझाया गया है। गुरु और शिष्य विहार कर रहे थे। रास्ते में पानी को देखकर शिष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy