________________
ध्यान
२१५
पिशाच के समान दिखनेवाले स्थाणु से भी डरता है, उसी प्रकार करजरूप से भयभीत साधक कसिण रूप से भी भय खाने लगता है।२०६
अरूपावचर ध्यान के चार प्रकार बताये गये हैं-आकाशानन्त्यायतन, विज्ञानानन्त्यायतन, आकिंञ्चन्यायतन, नैवसंज्ञानासंज्ञायतन।२०७ आकाशानन्त्यायतन (प्रथम आरूप्य-ध्यान)
इस ध्यान में साधक अनन्त आकाश पर विचार करता है। जब साधक चतुर्थ ध्यान में अभ्यस्त हो जाता है तब उसे वह ध्यान कसिण रूप के आलम्बन से उत्पन्न होने के कारण दोषयुक्त दिखाई पड़ता है। उसे यह प्रतीत होता है कि चतुर्थ ध्यान का सुखात्मक अंगोंवाले तृतीय ध्यान से सामीप्य है। अत: उसका स्वभाव शान्त नहीं हो सकता है। इस प्रकार विभिन्न प्रकार के दोषों को देख कर रूप के आलम्बन का त्याग करता है तथा अनन्त आकाश की भावना करता है।२०८
प्रारम्भ में साधक के ध्यान का आलम्बन छोटा होता है जिसे वह चतुर्थ ध्यान की अवस्था तक आते-आते विश्वाकार कर लेता है। उस विश्वाकार आकृति पर चतुर्थध्यान साध्य करने के पश्चात् साधक अपने ध्यान-बल से उस आकृति को दूर करके विश्व में केवल एक आकाश ही भरा हुआ है, ऐसा देखता है। इस प्रकार चतुर्थ ध्यान तक आलम्बन रूपात्मक रहता है और अब अरूपात्मक हो जाता है।२०९ अरूपात्मक यानी कि किसी प्रकार का कोई आकार-प्रकार नहीं होना। चूंकि आकाश की न तो उत्पत्ति ही होती है और न विनाश ही होता है, वह आदि तथा अन्तरहित है। इसलिए उसे अनन्त कहा जाता है। अनन्त आकाश को ध्यान का आलम्बन बनाने के कारण ही यह आकाशानन्त्यायतन रूपी प्रथम आरूप्य ध्यान कहलाता है।२१० विज्ञानानन्त्यायतन (द्वितीय आरूप्य-ध्यान)
आकाशानन्त्यायतन प्रथम आरूप्य ध्यान करने के पश्चात् साधक यह विचारता है कि प्रथम आरूप्य-ध्यान का चतुर्थ रूप-ध्यान से सामीप्य है, अत: प्रथम आरूप्य ध्यान की पंच वशिताओं के द्वारा निरन्तर भावना न करने पर साधक का चतुर्थ रूप-ध्यान में पतन हो सकता है। इस प्रकार प्रथम आरूप्य ध्यान में दोष देखकर साधक द्वितीय आरूप्य ध्यान को प्राप्त करने को उद्यत होता है और वह आकाश का अतिक्रमण कर प्रथम आरूप्य विज्ञान को आलम्बन बनाकर ध्यान करता है।२११ आकाश की अनन्त मर्यादा ही विज्ञान की मर्यादा है, क्योंकि विज्ञान को आलम्बन बनाने से पूर्व प्रथम आरूप्य ध्यान में आकाश आलम्बन होता है जो अनन्त विशेषणयुक्त है। अत: द्वितीय अरूप ध्यान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org