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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
उपर्युक्त पाँच ध्यानांगों (वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता) के प्रादुर्भाव से ही योगी प्रथम ध्यान का लाभ करता है। इस ध्यान की प्रक्रिया में वितर्क चित्त को आलम्बन के पास ले जाता है, विचार चित्त को आलम्बन में लगातार प्रवृत्त कराता है, प्रीति चित्त को परितोष देती है, सुख चित्त में वृद्धि करता है और एकाग्रता चित्त को आलम्बन में सम्यक् और समरूप प्रतिष्ठित करती है।८६ इस प्रकार प्रथम ध्यान की प्राप्ति होती है। परन्तु प्रथम ध्यान की प्राप्ति के बाद योगी को यह निश्चित कर लेना चाहिए कि किस प्रकार के आवास में रहकर किस प्रकार का भोजन करे और किस प्रकार के ईर्यापथ से उसे प्रथम ध्यान की प्राप्ति हुई है, क्योंकि कदाचित् उसका ध्यान नष्ट हो गया तो पुनः साधक उसी प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त कर पुन: प्रथम ध्यान को प्राप्त कर सकता है।१८७ जब तक साधक को प्रथम ध्यान पर सुदृढ़तापूर्वक अधिकार न हो जाए, तब तक उसे दूसरे ध्यान की ओर प्रवृत्त नहीं होना चाहिए वरना दूसरे ध्यान की प्राप्ति न होकर प्रथम ध्यान से च्युत होने की सम्भावना अधिक होगी। पटिसम्मिदामग में वशिताओं द्वारा प्रथम ध्यान पर पूर्ण अधिकार करने को कहा गया है।
वशिता का अर्थ होता है- सामर्थ्य सम्पन्न योगी का भाव। ये पाँच प्रकार की हैं- आवर्जन, समावर्जन, अधिष्ठान, व्युत्थान तथा प्रत्यवेक्षण।१८८
आवर्जन- प्रथम ध्यान के प्रत्येक अंग को निश्चित देश और काल में, निश्चित समय के लिए यथारुचि प्रवृत करने की सामर्थ्यता आवर्जन वशिता कहलाती है। इस वशिता के फलीभूत हो जाने पर साधक जब चाहे, जहाँ भी चाहे और जितनी देर चाहे उतनी देर प्रथम ध्यान के किसी भी अंग पर चित्त को स्थिर कर सकता है।१८९ ।
समावर्जन- ध्यान प्राप्त करने के प्रश्चात् विहार करने की इच्छा होने पर भी साधक अधिक भवांग (स्वाभाविक मन) उत्पन्न न होने देकर भवंग चलन, भवंगोपच्छेद, मनोद्वारावर्जन, परिकर्म, उपचार, अनुलोम और गोत्रभू को ही उत्पन्न करके यथारुचि ध्यान चित्तो के उत्पाद में सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, यही सामर्थ्य भाव समावर्जन वशिता कहलाती है।१९०
अधिष्ठान- चित्त को ध्यान-सन्तति में प्रतिष्ठित करने की सामर्थ्यता अधिष्ठान वशिता के नाम से जानी जाती है। इस वशिता के अन्तर्गत भवांग अर्थात् आलम्बन रहित परिशुद्ध चित्त का अभिभव होता है और ध्यान-सन्तति की प्रतिष्ठा होती है। साधक जिस क्षण ध्यान के प्रवाह में रहता है उस क्षण भवांगचित्त की उत्पत्ति को रोककर ध्यान में ही रहता है। स्थिति की ये सामर्थ्यता ही अधिष्ठान वशिता कहलाती है।१९१
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