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________________ ध्यान २११ व्युत्थान- निश्चित काल तक ध्यान-प्रवाह को बनाये रखने तथा चित्त को भवांग-प्रपात से बचाने की सामर्थ्यता को अधिष्ठान वशिता कहते हैं, परन्तु ठीक इसे विपरीत यथासमय अर्थात् निश्चित काल पर ध्यान से उठने की सामर्थ्यता व्युत्थान वशिता कहलाती है। १९२ प्रत्यवेक्षण- ध्यान के अंगों का आवर्जन (अर्थात् निश्चित देशकाल और निश्चित समय के लिए यथारुचि प्रवृत्ति) करते समय दो अंगों के आवर्जन के अन्तराल अनेक भवांग-चित्तों के उत्पन्न होने की संभावाना रहती है। साधक जब इन भवांग-चित्तों की उत्पत्ति को अवसर न देकर ध्यान के अंगों का पुन:-पुन: आवर्जन करने की क्षमता को प्राप्त करता है तो उसकी वह सामर्थ्यता ही प्रत्यवेक्षण वशिता कहलाती है।१९३ उपर्युक्त पाँच वशिताओं को प्राप्तकर साधक ध्यान के पाँचों अंग की स्थिति को मजबूत कर लेता है, जिससे उसके प्रथम ध्यान के नष्ट होने की संभावाना नहीं रहती है और साधक प्रथम ध्यान का धारक हो जाता है। प्रीतिसुख एकाग्र सहित (द्वितीय ध्यान) इस ध्यान में वितर्क तथा विचार का अभाव रहता है। पंच वशिताओं द्वारा जब साधक प्रथम ध्यान में अभ्यस्त हो जाता है तब वह प्रथम ध्यान से उठकर विचार करता है कि प्रथम ध्यान में वितर्क एवं विचार जैसे स्थूल अंगों का समावेश रहता है, अत: वह दोषपूर्ण है तथा वितर्क एवं विचार से रहित ध्यान अपेक्षाकृत अधिक शान्त एवं प्रणीत होता है। वितर्क एवं विचार में नाना आपत्तियों को देखकर साधक द्वितीय ध्यान को प्राप्त करने के लिए अपने पूर्व निमित्त को ही आलम्बन बनाकर भावना करता है। इसमें प्रीति, सुख तथा एकाग्रता की प्रधानता रहती है। इस ध्यान की उपमा पानी के उस भीतरी स्रोतोंवाले जलाशय से दी गयी है जिसमें किसी भी दिशा से पानी आने का रास्ता नहीं है, वर्षा की धारा भी उसमें नहीं गिरती, प्रत्युत् भीतर की जलधारा फूटकर उसे शीतल जल से भर देती है। इसी प्रकार भीतरी सुप्रसन्नता तथा चित्त की एकाग्रता के कारण समाधिजन्य प्रीति-सुख साधक के शरीर को भीतर से ही आप्लावित कर देता है। १९४ फलतः साधक वितर्क और विचार के शांत हो जाने से भीतरी प्रसन्नता एवं चित्त की एकाग्रता से युक्त, किन्तु वितर्क और विचार से रहित समाधि से उत्पन्न प्रीति सुखवाले द्वितीय ध्यान को प्राप्त कर विहरता है। वितर्क एवं विचारपूर्वक न होने के कारण द्वितीय ध्यान प्रथम ध्यान की अपेक्षा अग्र और श्रेष्ठ होता है तथा समाधि में वृद्धि करता है, क्योंकि प्रथम ध्यान में जो श्रद्धा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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