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________________ ध्यान २०९ वितर्क कहलाता है। उस विषय में गहरे उतरने को विचार कहते हैं। उससे जो आनन्द उपलब्ध होता है उसे प्रीति कहते हैं। उस आनन्द से शरीर को जो समाधान मिलता है वह सुख है और उस विषय में चित्त की जो एकाग्रता होती है, उसे एकाग्रता कहते हैं।१८१ आचार्य बलदेव उपाध्याय के शब्दों में “चित्त को किसी विषय में समाहित करने के समय उस विषय में चित्त का जो प्रथम प्रवेश होता है, वह 'वितर्क' होता है, परन्तु आगे बढ़ने पर उस विषय में चित्त का निगमन होना 'विचार' शब्द से अभिहित किया जाता है। बुद्धघोष ने इनके भेद को दो रोचक उदाहरणों से समझाया है। आकाश में उड़ने से पहले पक्षी अपने पंखों को समतोलन करता है और कई क्षणों तक अपने पंखों के सहारे आकाश में स्थिर रहता है, इसकी समता 'वितर्क' से दी गई है। अनन्तर वह अपने पंखों को हिलाकर उनमें गति पैदा कर आकाश में उड़ने लगता है, यह क्रिया 'विचार' का प्रतीक है अथवा किसी गन्दे पात्र को एक हाथ से पकड़ने तथा उसे दूसरे हाथ से साफ सुथरा करने की क्रिया में जो अन्तर है वही अन्तर वितर्क तथा विचार में है। इसी प्रकार प्रीति तथा सख की भावना में भी स्फटतर पार्थक्य है। चित्त-समाधान से जो मानसिक आह्लाद उत्पन्न होता है उसे 'प्रीति' कहते हैं। अनन्तर इस भाव का प्रभाव शरीर पर पड़ता है। शरीर की व्युत्पत्ति दशा की बेचैनी जाती रहती है। फलत: पूरे शरीर के ऊपर स्थिरता तथा शान्ति के भाव का जो उदय होता है, उसे ही 'सुख' कहते हैं। प्रीति मानसिक आनन्द है और सुख शारीरिक समाधान या स्थिरता। इसके अनन्तर चित्त विषय के साथ अपना सामंजस्य स्थापित कर लेता है, इसे ही एकाग्रता कहते हैं। इन पाँचों की प्रधानता रहने पर प्रथम ध्यान उत्पन्न होता है। १८२ विसुद्धिमग्गो में कहा भी गया है कि जब साधक इन पाँच अंगों की भावना बार-बार करता है तो वे अंग सुदृढ़ हो जाते हैं। इसी अवस्था में साधक को प्रथम ध्यान की प्राप्ति होती है।१८३ कहा गया है कि साधक कामों से अलग होने के पश्चात् ही अकुशल धर्मों से रहित होकर वितर्क-विचार सहित विवेक से उत्पन्न प्रीति और सुखवाले प्रथम ध्यान को प्राप्त करके विहरता है।१८४ यहाँ अकुशल धर्मों से अभिप्राय है शेष चार नीवरण। यद्यपि अकुशल धर्म तो बहुत हैं परन्तु इस ध्यान-प्रक्रिया में उन्हें ही ग्रहण किया गया है जो ध्यान के अंगों के विरोधी हैं, यथा- कामच्छन्द समाधि रूप एकाग्रता का विरोधी है, व्यापाद प्रीति का विरोधी है, स्त्यानमिद्ध (आलस्य और अकर्मण्यता) वितर्क का विरोधी है, औद्धत्य-कौकृत्य सुख का विरोधी है, विचिकित्सा विचार का विरोधी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पाँच नीवरणों में से प्रथम काम से अलग रहने पर एकाग्रता का प्रादुर्भाव होता है तथा शेष नीवरणों से अलग होने पर क्रमश: वितर्क, विचार, प्रीति और सुख रूपी अंग उत्पन्न होते हैं। अत: ये पाँच नीवरण प्रथम ध्यान के प्रहाण-अंग हैं।१८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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