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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
ध्यान के प्रकार
ध्यान के भेद-भेदाङ्ग विवाद के विषय रहे हैं। कहीं उन्हें चार प्रकार का माना गया है तो कहीं पाँच प्रकार का बताया गया है, परन्तु मुख्यत: ध्यान के दो ही प्रकार हैं- रूपावचर ध्यान तथा अरूपावचर। रूपावचर ध्यान में उन ध्यानों का समावेश है जिनमें रूप आलम्बन के आकार में होता है और जब रूप का अतिक्रमण करते हुए योगी अरूप को अपने ध्यान का विषय बनाता है तो उसका चित्त अरूप ध्यान को प्राप्त करता है। रूपावचर तथा अरूपावचर के पुन: चार-चार भेद किये गये हैंरूपावचर ध्यान१७६
१. वितर्क विचार प्रीतिसुख एकाग्रसहित, २. प्रीतिसुख एकाग्रसहित, ३. सुख एकाग्रसहित, ४. एकाग्रतासहित अरूपावचर१७७
१. आकाशानन्त्यायतन, २. विज्ञानानन्त्यायतन, ३. आकिंचन्यायतन, ४. नैवसंज्ञानासंज्ञायतन
परन्तु ये उपर्युक्त चार रूपावचर ध्यान तथा चार अरूपावचर ध्यान साधक को नीवरणों के शान्त होने के पश्चात् चित्त को ध्यान में लगाने पर प्राप्त होते हैं। दीघनिकाय में बताया गया है कि साधक को नीवरणों१७८ (कामच्छन्द, व्यापाद, स्त्यानमिद्ध, औद्धत्यकौकृत्य एवं विचिकित्सा) के हटने पर वैसा ही आनन्द प्राप्त होता है जैसा कि ऋणी व्यक्ति को ऋण से मुक्त होने पर, रोगी को रोग समाप्त हो जाने पर, बन्दी व्यक्ति को कारागार से छूटने पर, दास को दासता से मुक्त होने पर तथा भयाकीर्ण मरुभूमि में भटके व्यक्ति को सुरक्षित स्थान पर पहुँचने पर होता है।१७९ वितर्क विचार प्रीतिसुख एकाग्रसहित (प्रथम ध्यान)
यह रूपावचर ध्यान का प्रथम भाग है जो विषय भोगों और अकशल प्रवृत्तियों से अलग होकर वितर्क एवं विचार से उत्पन्न प्रीति और सुख का संवाहक है। इसमें जब साधक अपने चित्त को इन्द्रियों और बोध्यंगों के सम्प्रयोग द्वारा प्रतिभाग निमित्त में स्थिर कर लेता है तब उसके आलम्बन में चार चेतनाएँ उत्पन्न होती हैं, जिनमें अन्तिम रूपावचर भूमि होती है, शेष कामधातु से सम्बन्धित होती हैं। इन्हीं शेष कामधातु से सम्बन्धित चेतनाएँ प्रथम ध्यान की पहली समापत्ति की प्राप्ति की प्रारम्भिक कारण बनती हैं,१८० वे हैं- वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता। ध्यान के विषय में चित्त का प्रवेश
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