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________________ २०६ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन है, अव्यक्त एवं पुरातन है, ऐसे तीर्थंकर का स्मरण करके जो ध्यान किया जाता है वह रूपस्थ ध्यान है।१६६ रूपस्थ ध्यानी के लक्षण को बताते हए योगशास्त्र में कहा गया है कि रूपस्थ ध्यान को धारण करनेवाला साधक राग-द्वेषादि विकारों से रहित, शान्तकान्तादि समस्त गुणों से युक्त तथा योगमुद्रा को धारण करने के कारण मनोरम तथा नेत्रों में अमन्द आनन्द का अद्भुत प्रवाह बहानेवाला, अतिशय गुणों से युक्त जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का निर्मल चित्त से ध्यान करनेवाला होता है।१६७ तात्पर्य है कि इस ध्यान में साधक वीतरागता का ही ध्यान करता है, क्योंकि जब साधक वीतरागता का ध्यान करता है तब वह वीतरागी बनता है, यदि वह रागता का ध्यान करता है तो रागी बनता है।१६८ कारण कि जिन-जिन भावों से जीव का मन जुड़ता है वह उन्हीं-उन्हीं भावों में तन्मयता को प्राप्त करता है।१६९ रूपातीतध्यान रूप से अतीत अर्थात् बिना रंग-रूप के अतीत, निरंजन, निराकार, ज्ञानशरीरी आनन्दस्वरूप के स्मरण करने को रूपातीत ध्यान कहते हैं। १७० रूपातीत ध्यान परमात्मा का शद्धरूप ध्यान है। इसमें साधक अपनी आत्मा को ही परमात्मा समझकर स्मरण करता है। ध्यानी सिद्ध परमेष्ठी के ध्यान का अभ्यास करके शक्ति की अपेक्षा से अपने-आपको उनके समान जानकर उनमें लीन हो जाता है और अपने कर्मों का नाश करके व्यक्त रूप परमेष्ठी हो जाता है।१७१ इस अवस्था को आचार्य हेमचन्द्र ने समरसीभाव के नाम से अभिहित किया है।१७२ यद्यपि पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान के भेद, धर्मध्यान के अन्तर्गत ही आते हैं। परन्तु ये भेद ध्येय की अपेक्षा से किये गये हैं, इसलिए हमने इनका अलग से वर्णन किया है। अत: कहा जा सकता है कि धर्मध्यान के इन भेद-प्रभेदों के माध्यम से साधक ध्यान की स्थिरता को प्राप्त करता है जिससे उसका चित्त किसी एक ध्येय में केन्द्रित हो जाता है। इस ध्यान (धर्मध्यान) के अन्तर्गत साधक विभिन्न साधनों यथा-जप, मन्त्र, विद्याओं आदि का सहारा लेकर तथा व्रतों के सम्यक् आचरण से स्थूल वस्तुओं को ध्यान में रखते हुए सूक्ष्म तत्त्व की ओर गति करता है। परन्तु यह भी सत्य है कि इस ध्यान को सभी साधक नहीं कर सकते हैं। वे ही साधक इस ध्यान को कर सकते हैं जो यह सोचते हैं कि भले ही प्राणों का त्याग करना पड़े लेकिन संयम से च्युत नहीं होंगे। साथ ही वह अन्य जीवों के सुख-दुःख को अपने सुख-दुःख की भाँति समझता हो, परीषहजयी हो, मुमुक्षु हो, रागद्वेषादि कषायों, दुषवृत्तियों एवं कामवासनाओं से मुक्त हो, शत्रु,मित्र,निन्दा,स्तुति आदि में समताभाव धारण करनेवाला हो, परोपकारी एवं प्रशस्त-बुद्धि हो।१७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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