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________________ ध्यान णमोकार मंत्र की साधना से साधक अपने सभी कर्मों का क्षय करके, दिव्य शक्ति, ज्ञान- शक्ति, आचार-शुद्धि, स्मरण शक्ति आदि को प्रखर बनाकर तथा काम-वासना को समाप्त करके अतीन्द्रिय ज्ञान एवं प्रतिभा को प्राप्त करता है। २०५ जैन ग्रन्थों में उपर्युक्त मंत्रो के अतिरिक्त और भी कुछ मंत्र देखने को मिलते हैं जिनका नित्य जप करने से साधक को शान्ति की प्राप्ति होती है एवं उनके कर्मों का क्षय होता है। १६० इसी क्रम मे षोडशाक्षर विद्या भी आती है। सोलह अक्षरों से युक्त मंत्र को षोडशाक्षर विद्या कहते हैं, जो इस प्रकार हैं- अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः । इसमें छ: अक्षरवाला जप है- अरिहंत सिद्ध, चार अक्षरवाला है- अरिहंत, दो अक्षरों का है-सिद्ध और एक अक्षर है- 'अ' । १६१ इस मंत्र को एकाग्रचित्त होकर दो सौ बार जपने से एक उपवास का फल मिलता है। १६२ इसी प्रकार ॐ, ह्राँ, ह्रीं, हूँ, ह्रीं, अ, सि, आ, उ, सा नमः इस पंचाक्षरी विद्या के निरन्तर अभ्यास से साधक मन को वश में कर संसार रूपी बन्धन को शीघ्र काट देता है एवं एकाग्रचित्त से मंगल, उत्तम पदों का जप करता हुआ मोक्ष को प्राप्त करता हैं । १६३ " उपर्युक्त मंत्रों के अतिरिक्त कुछ और भी मंत्र देखने को मिलते हैं जिनके ध्यान से साधक मोक्ष पद को प्राप्त करता है । वे इस प्रकार हैं- “ ॐ अर्हत् सिद्ध सयोगकेवली स्वाहा।” ऊँ, ह्रीं, श्रीं, अर्हं, नमः । " नमः सर्व सिद्धेभ्यः । " आदि । इस प्रकार पदस्थ ध्यान में शरीर में स्थित विभिन्न ध्यान केन्द्रों (कमलों) पर विभिन्न मंत्रों के अभ्यास से साधक के समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है और वह लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि के साथ-साथ मोक्षपद की प्राप्ति भी करता है । परन्तु ध्यातव्य है कि जिस अक्षर, पद, वाक्य, शब्द, मंत्र एवं विद्या का ध्यान करने से साधक राग-द्वेष से रहित हो जाता है, वही ध्यान माना जाता है। अन्यथा राग-द्वेषादि से मोहित होकर सांसारिक प्रपंचों को दूर करने के विचार से जो ध्यान करता है उसको सिद्धियाँ प्राप्त नहीं होती हैं । १६४ रूपस्थध्यान Jain Education International अरहंत भगवान् के स्वरूप का अवलम्बन करके किया जानेवाला ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है।१६५ अर्थात् साधक तीर्थंकर आदि के गुणों एवं आदर्शों को अपने समक्ष रखकर उनके स्वरूप का सहारा लेकर जो ध्यान करता है, वह रूपस्थ ध्यान कहलाता है। ज्ञानार्णव में कहा गया है कि जिस अरहंत देव से अनन्तज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र इन नौ लब्धि रूपी लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई है एवं जो सर्वज्ञ है, दाता है, सर्वहितैषी है, वर्धमान है, निरामय है, नित्य है, अव्यय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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