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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन २०४ प्रणवध्यान- इस ध्यान में ॐ पद के ध्यान करने का विधान है। ॐ जिसे प्राय: सभी मोक्षवादी परम्परायें एकमत से स्वीकार करती हैं। वैदिक परम्परा के अनुसार यह सारा जगत ही ऊँकारमय है। इनके अनुसार ॐ शब्द 'अ', 'उ', 'म' इन तीन अक्षरों के संयोग से सम्पन्न हुआ है, जिसमें 'अ' को 'ब्रह्म','उ' को विष्णु तथा 'म' को महेश कहा गया है। इसी प्रकार जैनाचार्यों ने ॐ को पंचपरमेष्ठी वाचक माना है। इनके अनुसार अरहंत, अशरीरी-सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मनि इन पाँच परमेष्ठियों के प्रथम वर्ण को लेकर संधि करने से ॐ शब्द निष्पन्न है। यानी कि अ+अ+आ+उ+म = अ+अ+आ = आ। आ+उ = ओ और ओम = ओम या ॐ ऐसा माना गया है।५५ इस ध्यान में हृदय-कमल के मध्य में स्थित, वचन विलास की उत्पत्ति का एकमात्र कारण, स्वर और व्यंजनों से युक्त, पंचपरमेष्ठी का वाचक एवं मस्तिष्क में स्थित चन्द्रकला से झरते हुए अमृतरस से आर्द्र 'महामंत्र ऊँकार' का कुम्भक द्वारा ध्यान किया जाता है।५६ शंख, कुन्द और चन्द्र के समान उज्ज्वल प्रणव (ॐ) शून्य (०) और अनाहत (ह) इन तीनों का नासिका के अग्रभाग पर ध्यान करनेवाला अणिमादि आठ सिद्धियों को प्राप्त कर समस्त विषयों के निर्मल ज्ञान में पारंगत हो जाता है। इस ध्यान की विशेषता यह है कि यह स्तम्भन कार्य में पीत, वशीकरण में लाल, शोभित अवस्था में मूंगे के समान, द्वेष में कृष्ण, कर्मनाशक अवस्था में चन्द्रमा के समान उज्ज्वल वर्ण का होता है।५७ इस तरह इसमें ॐ शब्द को लक्ष्य करके साधक आत्मविकास की ओर बढ़ता है। पंचपरमेष्ठी ध्यान- अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी पद हैं। इस ध्यान में सर्वप्रथम हृदय में आठ पंखुड़ीवाले कमल की स्थापना करके कर्णिका पर लिखे “सप्ताक्षर अरहंताणं" पद का ध्यान किया जाता है। तत्पश्चात् चारों दिशाओं में चार पत्रों पर क्रमश: “णमो सिद्धाणं","णमो आयरियाणं","णमो उवज्झायाणं' और “णमो लोए सव्वसाहूणं" का ध्यान किया जाता है तथा चारों विदिशाओं के पत्रों पर क्रमश: “एसो पंचणमोक्कारो, सव्वपावपणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं का ध्यान किया जाता है।५८ परन्तु आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में उपर्युक्त विवेचन से भिन्न विवेचन किया है। उनका कहना है कि साधक को पूर्वादि चार दिशाओं में तो ‘णमो अरहंताणं आदि का ध्यान करना चाहिए, लेकिन चार विदिशाओं में क्रमशः सम्यग्दर्शनायनम:, सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्यक्-चारित्राय नम: तथा सम्यग्तपसे नमः का स्मरण करना चाहिए।१५९ साधक को इन्ही मंत्रों पर अपनी सम्पूर्ण भावनाओं को एकाग्र करके आत्मसिद्धि में संलग्न होना चाहिए। यही महामन्त्र सबका रक्षक माना गया है, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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