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________________ ध्यान २०३ लगाता है तो उसकी प्रज्ञाशक्ति जाग्रत होती है। मुखकमल में साधक यह विचार करता है कि मुखमण्डल के ऊपर ८ पत्तोंवाला एक कमल बना हुआ है जिसके प्रत्येक पत्ते पर य, र, ल, व, श, ष, स, ह --आदि आठ वर्ण अंकित हैं। इस प्रकार अपनेअपने मण्डलों में विद्यमान अकार से हकार तक के परम शक्तिसम्पन्न मन्त्रों का ध्यान करने से ये मंत्र इहलोक तथा परलोक में फल देनेवाले होते हैं । १४८ मन्त्र और वर्णों का ध्यान इस ध्यान में मंत्र और वर्णों के समस्त पदों के स्वामी को अर्हं माना गया है, जो रेफ (') युक्त कला एवं बिन्दु से आक्रान्त अनाहत सहित मंत्रराज होता हैं । १४९ आचार्य शुभचन्द्र और आचार्य हेमचन्द्र ने 'अनाहत' की चर्चा करते हुए 'अहं' महामंत्र को 'अनाहतदेव' की संज्ञा से विभूषित किया है। १५° इस महामंत्र की ध्यान- प्रक्रिया को बताते हुए वे कहते हैं- बुद्धिमय ध्याता के स्वर्ण-कमल के गर्भ में स्थित चन्द्रमा की सघन किरणों के समान निर्मल आकाश में संचरण करते हुए और समस्त दिशाओ में फैलते हुए रेफ से युक्त कला और बिन्दु से घिरे हुए अनाहत सहित मंत्राधिप'अहं' का चिन्तन करना चाहिए। तत्पश्चात मुखकमल में प्रवेश करते हुए भू लता में भ्रमण करते हुए, नेत्रपत्तों में स्फुरायमान होते हुए, भालमण्डल में स्थित, तालु के रन्ध्र से बाहर निकलते हुए अमृत रस बरसाते हुए, उज्ज्वलता में चन्द्रमा के प्रतिस्पर्धी, ज्योतिमण्डल में विशेष प्रकार से चमकते हुए, आकाश प्रदेश में संचार करते हुए, मोक्ष लक्ष्मी के साथ मिलाप कराते हुए, समस्त अवयवों से परिपूर्ण 'अहं' मंत्राधिराज का कुंभक के द्वारा चिंतन करना चाहिए । १५ | १५१ उसके बाद रेफ, बिन्दु और कला से सम्पूर्ण और रेफ, बिन्दु, कला एवं उच्चारण से रहित 'ह' वर्ण का ध्यान करना चाहिए । १५२ इसी तरह क्रमशः दूज के चन्द्रमा की रेखा के समान एवं बाल के अग्रभाग के समान सूक्ष्मरूप से उस अनाहत 'ह' का ध्यान करना चाहिए । १५३ फिर लक्ष्य अर्थात् सालम्बन ध्यान से मन को धीरे-धीरे हटाकर अलक्ष्य में अर्थात् निरालम्बन ध्यान में स्थिर करने पर अतीन्द्रिय व अविनश्वर ज्योति प्रकट होती है। अलक्ष्य में अवस्थान ही साधक की अभीष्ट सिद्धि होती है तथा इसी से साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है । १५४ इस प्रकार इस ध्यान में पहले लक्ष्य का आलम्बन करके अनुक्रम से लक्ष्य का अभाव बताया गया है। अर्थात् साधक को लक्ष्य से अलक्ष्य की ओर अग्रसर होना चाहिए, इस ध्यान में ऐसा विधान किया गया है। जिस साधक का मन अलक्ष्य में स्थिर हो जाता है, उसे मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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