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________________ २०२ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन बची हुई राख को उड़ा रहा है। इस प्रकार प्रचण्ड वायु के चिन्तनपूर्वक भस्म हुए शरीरादि की धूलि को शीघ्र उड़ाकर उसे शान्त करना वायवी धारणा है। इसे मारुती धारणा के नाम से भी अभिहित किया जाता है।१४० वारुणी धारणा- फिर साधक यह कल्पना करे कि तेज वर्षा हो रही है, बची हुई राख उसके जल में प्रवाहित हो रही है। यह वारुणी धारणा है।१४१ तत्त्ववती अथवा तत्त्वभू धारणा- साधक यह कल्पना करे कि मेरी आत्मा अर्हत् के समान है, शुद्ध है, अतिशयसम्पन्न है। ज्ञानार्णव में कहा गया है-साधक ऐसा चिन्तन करे कि मेरी आत्मा सप्तधातु से रहित है और पूर्ण चन्द्रमा के समान उज्ज्वल एवं निर्मल है, मेरी आत्मा सर्वज्ञ है। ऐसा चिन्तन करना तत्त्ववती धारणा है।१४२ इस प्रकार पहली धारणा में साधक अपने मन को स्थिर करता है, दूसरी में शरीर कर्म को नष्ट करता है, तीसरी में शरीर और कर्मों के सम्बन्ध को भिन्न देखता है, चौथी में शेष कर्म का नष्ट होना तथा पाँचवी में कर्म एवं शरीर से रहित शुद्ध आत्मा को देखता है। फलत: वह शुक्लध्यान में पहुँचने की स्थिति को प्राप्त करता है। पदस्थ ध्यान पदस्थ ध्यान का अर्थ ही होता है- पदों या अक्षरों पर ध्यान केन्द्रित करना। इस ध्यान में अनेकों प्रकार की विधाओं, मंत्रों और पदों का ध्यान किया जाता है। ज्ञानार्णव में इसे परिभाषित करते हुए कहा गया है कि पवित्र पदों का आलम्बन लेकर जो अनुष्ठान या चिन्तन किया जाता है वह पदस्थ ध्यान है।१४३ इसी प्रकार वसनन्दि श्रावकाचार में भी कहा गया है कि एक अक्षर को लेकर अनेक प्रकार के पंच परमेष्ठी वाचक पवित्र मन्त्रपदों का उच्चारण जिस ध्यान में किया जाता है वह पदस्थ ध्यान है।१४४ ज्ञानार्णव में इसे वर्ण-मातृका ध्यान के नाम से भी पुकारा गया है।१४५ यह पाँच प्रकार से निष्पन्न होता है अक्षर ध्यान- अक्षर ध्यान के द्वारा साधक नाभिकमल, हृदयकमल और मुखकमल से शरीर के तीन भागों की परिकल्पना करता है। नाभिकमल में साधक यह चिन्तन करता है कि मेरे नाभिकमल में सोलह दलवाला एक कमल है जिसकी प्रत्येक पंखुड़ी पर 'अ', 'आ', 'इ', 'ई' आदि सोलह अक्षर अंकित हैं।१४६ साधक इन वर्गों पर मन को टिकाता है और उसका चित्त एकाग्र हो जाता है। हृदयकमल में साधक यह चिन्तन करता है कि हृदय स्थल पर चौबीस पँखुड़ियोंवाला एक कमल है जिसके मध्य में एक कर्णिका भी है, इन चौबीस दलों एवं कर्णिका पर 'क', 'ख', 'ग' से लेकर 'प', 'फ', 'ब', 'भ', 'म' आदि पच्चीस वर्ण लिखे हुए हैं।१४४ साधक जब इन अक्षरों पर ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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