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ध्यान .
१९९ क्षमा- क्षमा का अर्थ होता है-अनुचित व्यवहार के बाद भी किसी व्यक्ति के प्रति मन में क्रोध को न लाना, सहनशील रहना। शुक्लध्यानी के मानस में कभी भी क्रोध नहीं आता, भले ही कैसा भी क्रोध का प्रसंग हो, क्योंकि वह क्रोध पर विजय प्राप्त कर लेता है। उसमें उत्तम क्षमा साकार हो जाती है।
मार्दव- ऐसा आचरण जिसमें व्यक्ति अपने को दूसरों से बड़ा न समझे, जिसमें अपनी प्रशंसा और सम्मान की चाह न हो मार्दव गुण कहलाता है। अत: चित्त में मृदुता और व्यवहार में भी नम्रवृत्ति का होना मार्दव गुण है।
आर्जव- भाव की विशुद्धि अर्थात् विचार, भाषा और व्यवहार की एकता आर्जव गुण के नाम से जाना जाता है। चित्त की सरलता का होना ही शुक्लध्यानी का परम लक्षण है।
मुक्ति- शुक्लध्यानी साधक को किसी प्रकार का लोभ नहीं रहता, वह पूरी तरह से इस कषाय से मुक्त रहता है। आत्मस्वरूप में अवस्थित होने के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को पाने की इच्छा न करना ही मुक्ति (संतोष) है। शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षाएँ
ध्यानशतक में कहा गया है कि शुक्लध्यान से सुभावित चित्तवाला चारित्र सम्पन्न मुनि ध्यान से उपरत होने पर भी सदा चारों अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है।१३२ वे चार अनुप्रेक्षाएँ १३३ इस प्रकार हैं
आस्रवद्वारापाय- संसार परम्परा के विषय में चिन्तन करना आस्रवद्वारापाय है। संसार परम्परा में जीव ने अनन्त बार जन्म और मृत्यु को धारण किया है। इस संसारसागर को पार करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। कर्म-बन्धन के हेतु अर्थात् आस्रवद्वार कौनकौन से हैं और उनके सेवन करने से इस लोक में और परलोक में कौन-कौन से दुःखों का जीव को सामना करना पड़ता है आदि विषयों का चिन्तन करना आस्रवद्वारापाय है। इसे अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा भी कहा जाता है।
आत
संसारासुखानुभव- संसार की असारता या दुःखरूपता का चिन्तन करना ही संसारासुखानुभव अनुप्रेक्षा है। साधक यह सोचता है कि प्राणी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को प्राप्त करता है और यह क्रम चलता ही रहता है। शरीर ग्रहण करने व छोड़ने की इसी प्रक्रिया को संसार कहते हैं।
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