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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
गुणस्थान में प्रारम्भ होता है जिसमें केवली भगवान् अन्त समय से पहले समय में अर्थात् उपान्त्य में ७२ कर्म-प्रकृतियों को तथा इसी गुणस्थान की अवशिष्ट तेरह कर्म-प्रकृतियों को भी नष्ट कर देते हैं। १२५ इन शेष अघातिया कर्मों के नाश के बाद केवली भगवान् का इस संसार से पूर्णत: सम्बन्ध टूट जाता है और वे सीधे उर्ध्वगमन करके लोक के शिखर पर विराजमान होते हैं।
शुक्लध्यानी के लक्षण
ध्यानशतक में शुक्लध्यानी के चार लक्षण बताये गये हैं । १२६ जो इस प्रकार हैं
अव्यथ- शुक्लध्यानी न तो किसी से भयभीत होता है और न ही उसका प्रतिकार करता हैं। जैसा कि कहा गया है- शुक्लध्यान का साधक मानव, देव, तिर्यंच कृत उपसर्गों और सभी प्रकार के परीषहों को समभाव से सहने में सक्षम होता है। १२७ विश्व की कोई भी शक्ति उसे ध्यान से विचलित नहीं कर सकती और न ही वह कभी व्यथित हो सकता है।
असम्मोह - इस ध्यान में साधक देवादिक माया से मोहित नहीं होता, १२८ क्योंकि मोहजनित २८ प्रकृतियाँ उसमें उदित नहीं हो पातीं। ध्यान के समय पूर्ववत सूक्ष्म पदार्थ पर एकाग्रता होती है, चाहे कितना भी गहन पदार्थ हो तब भी चित्त मोहित नहीं होता ।
विवेक - शरीर और आत्मा में भेद का ज्ञान होना विवेक कहलाता है । १२९ जब साधक को यह निश्चय हो जाता है कि मैं देह नहीं, आत्मा हूँ तब वह देहनाशक कष्ट होने पर भी खेद नहीं करता, क्योंकि उसे ज्ञात है कि कष्ट की अनुभूति देह को होती है, आत्मा को नहीं।
व्युत्सर्ग
अनासक्त होकर साधक द्वारा देह और उपाधि का सर्वथा त्याग करना व्युत्सर्ग है । १ ३० साधक में भोगेच्छा, यशेच्छा किंचित् मात्र भी नहीं होती । वह निरन्तर वीतरागता की ओर बढ़ता जाता है।
शुक्लध्यान के आलम्बन
ध्यान में आलम्बन की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि कोई भी साधक किसी आलम्बन के द्वारा ही उच्च शिखर पर पहुँचता है । आलम्बन के द्वारा ही साधक आत्मिक प्रगति की सीढ़ी पर चढ़ता है। स्थानांग में आलम्बन के चार प्रकार बताये गये हैं, १३१ जो निम्न प्रकार हैं
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