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________________ २०० जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन भवसन्तान की अनन्तता- मिथ्यात्व,राग, द्वेष एवं मोह संसार के आवागमन के कारण माने गये हैं। जिनमें मिथ्यात्व को प्रमुख कारण माना गया है। कारण कि जब तक जीव मिथ्यात्व दृष्टिवाला बना रहता है तब तक उसके लिए यह संसार अनन्त बना रहता है और जिसने मिथ्यात्वदृष्टि पर विजय प्राप्त कर ली वह अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परिमाण संसारवाला हो जाता है। ऐसा विचार या चिन्तन भवसन्तान की अनन्त अनुप्रेक्षा है। वस्तुविपरिणामानुप्रेक्षा- साधक वस्तुओं के परिणमनशील स्वभाव पर चिन्तन करता है। वह जानता है कि सभी वस्तुयें प्रतिपल-प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती हैं, कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है। इस प्रकार का चिन्तन वस्तुविपरिणामानुप्रेक्षा के नाम से जाना जाता है। इस अनुप्रेक्षा में साधक की अपने शरीर के प्रति भी आसक्ति छूट जाती है। यद्यपि शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षायें बतायी गयी हैं, किन्तु ये चारों प्रथम दो शुक्लध्यानों से ही सम्बन्धित हैं। इन्ही दोनों शुक्लध्यानों में इन अनुप्रेक्षाओं की उपयोगिता होती है। अन्तिम दोनों शुक्ल ध्यानों में ये अनुप्रेक्षायें नहीं होती। इस प्रकार ध्यान की चार अवस्थायें यानी चार प्रकार हैं। किन्तु सही भाने में देखा जाए तो दो रूप ही मुख्य रूप से दृष्टिगोचर होते हैं-१. चित्त की स्थिरता और २. आत्मा की निर्मलता। चित्त की स्थिरता तो किसी भी सांसारिक विषय में हो सकती है, जिसे हम व्यावहारिक योग की संज्ञा से विभूषित कर सकते हैं। यदि हम उसे जैन दर्शन की भाषा में कहे तो आर्तध्यान और रौद्रध्यान कह सकते हैं। किन्तु इस प्रकार की स्थिरता उपादेय नहीं कही जा सकती, क्योंकि ये कर्म-बन्ध के हेतु हैं। चित्त को निर्मल बनाने के लिए धर्मध्यान और शुक्लध्यान को उपादेय माना गया है। इन्हीं दोनों ध्यान को मोक्ष का कारण होने से सुध्यान कहा जाता है। परमात्मप्रकाश में कहा गया है कि निर्मल चित्त में परमात्मा के दर्शन ठीक उसी प्रकार होते हैं, जिस प्रकार निर्मल आकाश में सूर्य के।१३४ इस प्रकार से ध्यान करनेवाला योगी अन्त में स्वयं आत्यंतिक रूप से निर्मल परमात्मा बन जाता है। ध्येय की अपेक्षा से ध्यान के प्रकार आचार्यों ने ध्येय की अपेक्षा से ध्यान के चार प्रकार किये हैं—पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत।१३५ परन्तु कहीं-कहीं इसके तीन वर्गीकरण ही देखने को मिलते हैं। जैसे- ज्ञानसार में पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ का ही वर्णन देखने को मिलता है। वहाँ रूपातीत का कोई निर्देश नहीं है।१३६ प्रायः ध्यान से सम्बन्धित सभी जैन ग्रन्थों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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