________________
१९४
जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
धर्मध्यानी के लक्षण - स्थानांग में धर्मध्यानी के चार लक्षण बताये गये हैं।९८ जिस आत्मा में धर्म का अवतरण हो जाता है उसमें स्वाभाविक रूप से निम्नलिखित चार प्रकार के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं
(१) आज्ञारुचि - अरिहन्तवचन यानी आप्तवचन को आज्ञा मानकर उसी के अनुरूप जीवनयापन करना आज्ञारुचि कहलाता है।
(२) निसर्गरुचि- बिना किसी उपदेश के सहज ही सत्य के प्रति श्रद्धा का होना निसर्गरुचि है।
(३) सूत्ररुचि-सूत्रों के अध्ययन, चिन्तन एवं मनन में रुचि का होना सूत्र-रुचि है।
(४) अवगाढ़रुचि - विस्तारपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् जो श्रद्धा जाग्रत होती है वह अवगाढ़रुचि है।
धर्मध्यान के आलम्बन - धर्मध्यान के चार आलम्बन बताये गये हैं-वाचना, प्रतिप्रच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा। ९ कहीं-कहीं परिवर्तना को परिवर्तन तथा प्रतिप्रच्छना को पृच्छना नाम से भी अभिहित किया गया है। परन्तु वहाँ भी चार ही भेद निर्दिष्ट किये गये हैं।१०० ऐसे ही ध्यानशतक में अनुप्रेक्षा को अनुचिन्ता नाम से अभिहित किया गया है।१०१
धर्मध्यान की अनुप्रेक्षाएँ - स्थानांग में धर्मध्यान की चार प्रकार की अनुप्रेक्षाएं बतायी गयी हैं।०२ जो निम्नलिखित हैं
एकत्व-अनुप्रेक्षा - अकेलेपन का चिन्तन करना अर्थात् एक आत्मा ही अपनी है- ऐसा चिन्तन करना एकत्व-अनुप्रेक्षा है।
अनित्य-अनुप्रेक्षा - पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन करना अर्थात् संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है- ऐसा चिन्तन करना अनित्य-अनुप्रेक्षा है।
अशरण-अनुप्रेक्षा -अशरण अर्थात् संसार में आत्मा के लिए कोई भी स्थान, पर्याय अथवा शक्ति शरणभूत नहीं है- ऐसा चिन्तन करना अशरण-अनुप्रेक्षा है।
__ संसार-अनुप्रेक्षा -संसार परिभ्रमण अर्थात् आत्मा की चारों गतियों एवं सभी अवस्थाओं में होनेवाले आवागमन के सम्बन्ध में चिन्तन करना संसार-अनुप्रेक्षा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org