________________
कैसे और किस कारण से होते हैं तथा उनका नाश कैसे किया जा सकता है।
१८७
संस्थानविचय
ध्यान
तीनों लोकों के संस्थान, प्रमाण और आयु आदि का चिन्तन करना संस्थानविचय धर्मध्यान कहलाता है।" योगशास्त्र के अनुसार अनादि, अनन्त किन्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परिणामी स्वरूपवाले लोक की आकृति का जिस ध्यान में विचार किया जाता है वह ध्यान संस्थानविचय धर्मध्यान कहलाता है । ९ इसी प्रकार ध्यानशतक में संस्थानविचय का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि इस ध्यान में द्रव्यों के लक्षण, आकार, आसन, भेद, मान आदि पर विचार किया जाता है, साथ ही उत्पाद, व्यय और व्य से युक्त जगत भी इस ध्यान का विषय होता है । "
धर्मध्यान के उपर्युक्त चार भेदों के अतिरिक्त हरिवंशपुराण में अन्य छः ९९ भेद भी देखने को मिलते हैं। जो इस प्रकार हैं
(२) जीवविचय धर्मध्यान
(१) उपायविचय धर्मध्यान- पुण्य रूपी योग की प्रवृत्तियों को अपने आधीन करने को उपाय कहते हैं और 'यह उपाय मेरा किस प्रकार से हो सकता है।' इस प्रकार के संकल्प को करके जो चिन्तन किया जाता है वह उपायविचय धर्मध्यान है । ९२
जीवविचय धर्मध्यान है । ९३
१९३
-
जीव के विविध दशाओं का ध्यान करना
(३) अजीवविचय धर्मध्यान
धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पाँचों अजीव द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप का चिन्तन करना अजीवविचय धर्मध्यान है । ९४
Jain Education International
(४) विरागविचय धर्मध्यान- यह शरीर अनित्य है तथा यह संसार जिसमें नाना प्रकार की भोग सामग्री है, दुःखों से भरा हुआ है और सुख से सर्वथा दूर है - ऐसा विचार करना विरागविचय धर्मध्यान है । ९५
(५) भवविचय धर्मध्यान - संसार में कर्मों के जाल में फँसे हुए प्राणी अपने कर्मों के उदय से अनेक प्रकार की योनियों में बराबर घूमते रहते हैं - ऐसा चिन्तन करना भवविचय धर्मध्यान के नाम से जाना जाता है । ९६
(६) हेतुविचय धर्मध्यान - सर्वज्ञ देव द्वारा कहे हुए पदार्थों को संसार भर में स्थापित कर देना या उनके यथार्थ स्वरूप को अपने हृदय में स्थापित कर लेना हेतुविचय धर्मध्यान कहलाता है।९७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org