SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन प्रमाणपूर्वक बोध करानेवाला प्रवचन और विचय का अर्थ होता है-विचार या चिन्तन करना। इस प्रकार आज्ञाविचय से अभिप्राय है- वीतराग तथा सर्वज्ञ पुरुष की आज्ञा क्या है और वह कैसी होनी चाहिए? इसकी परीक्षा करके वैसी आज्ञा का पता लगाने के लिए मनोयोग को लगाना। यानी सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रधान मानकर उनके द्वारा बताये गये पदार्थों का भली प्रकार से चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान कहलाता है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार तीर्थंकर या सर्वज्ञ द्वारा कहे गये उपदेशों को सत्य मानकर शिरोधार्य करना तथा ऐसा समझना की तीर्थंकर के तत्त्वोपदेश में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होती और न ही उनके वचन सत्य से परे होते हैं आज्ञाविचय धर्मध्यान है।५८ इसकी विशेषता पर प्रकाश डालते हुए ध्यानशतक में कहा गया है कि यह आज्ञा अतिनिपुण, अनादिअनन्त, प्राणियों के लिए हितकर, सत्यग्राही, अनर्घ्य, अपरिमित, अपराजित, महान् अर्थवाली, महान सामर्थ्य से युक्त, महान विषयवाली, अनिपुण लोगों द्वारा अज्ञेय तथा नय, भंग, प्रमाण और गम (विकल्प) से गहन है।९ अपायविचय राग-द्वेषादि दोषों से छुटकारा पाने के लिए मनोयोग लगाना अपायविचय धर्मध्यान है। इसे और भी सरल भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है कि जीव के जो शुभाशुभ भाव होते हैं उनका चिन्तन करना अपायविचय धर्मध्यान है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार राग-द्वेष से उत्पत्र दुर्गति के कष्टों का चिन्तन अपायविचय धर्मध्यान है।८२ सामान्य तौर पर कहा जा सकता है- वे दोष या दुर्गुण जिनसे सांसारिक जीव परेशान होकर छटने का प्रयास करता है, ऐसे प्रयास को ही अपायविचय धर्मध्यान कहा जाता है।८३ संसार में जितने भी अनर्थ होते हैं उन सबका मूल कारण राग-द्वेष, कषाय, प्रमाद, आसक्ति एवं मिथ्यात्व है। अर्थात् मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को ही संसार का मूलकारण माना गया है और इन प्रवृत्तियों से कैसे छुटकारा पाया जाए, इस प्रकार के विचार को अपायविचय धर्मध्यान कहा गया है।४ विपाकविचय __ शुभाशुभ कर्मफलों के उदय का द्योतक विपाक कहलाता है तथा कर्मफलों के क्षण-क्षण उदित होने की प्रक्रिया में संलग्न चित्त की एकाग्रता विपाकविचय धर्मध्यान है।८५ जैसा कि भगवती आराधना की विजयोदया टीका में कहा गया है कि कर्मों के शुभअशुभ फल एवं उदय, उदीरणा, संक्रमण, बन्ध और मोक्ष का विचार करना विपाकविचय धर्मध्यान कहलाता है।६ तात्पर्य है कि इस ध्यान में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से चिन्तन-मनन किया जाता है और यह विचार किया जाता है कि उदय, उदीरणा आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy