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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
को अपाययोग कहते हैं। गुरु और वेदशास्त्र के वचनों पर विश्वास रखने का नाम निश्चययोग है। चक्षु को नासिका के अग्र भाग पर स्थिर करना चक्षुयोग है। शुद्ध और सात्विक भोजन का नाम आहारयोग है। विषयों की ओर होनेवाले मन तथा इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति को रोकना संहारयोग कहलाता है। जन्म, मृत्यु, जरा, रोग आदि होने पर महान् दुःख और दोषों का वैराग्यपूर्वक दर्शन करना दर्शनयोग है। जिसे योग के द्वारा सिद्धि प्राप्त करनी हो उसे इन बारह योगों का आलम्बन करना चाहिए। परन्तु पूर्णयोग के लिए साधक के मन में समता एवं शान्ति का होना आवश्यक है, अत: उसे अहिंसादि का भी पालन करना चाहिए।
योगाभ्यास के प्रथम चरण में साधक के समक्ष मोह-भ्रम और आवर्त आदि अनेकों विघ्न आते रहते हैं। फिर सुगन्ध आती है और दिव्य शब्दों के श्रवण एवं दिव्य रूपों का साक्षात्कार भी होता है। नाना प्रकार के अद्भुत रस और स्पर्श का अनुभव होने लगता है। इच्छानुकूल सर्दी-गर्मी भी प्राप्त होने लगती है। वायु-स्वरूप होकर आकाश मण्डल में चलने-फिरने की क्षमता भी आ जाती है तथा दिव्य भोग अपने आप उपस्थित होने लगते हैं। अत: साधक को चाहिए कि वह योग बल से प्राप्त इन सिद्धियों की ओर से, जो यौगिक विघ्न है, अपना ध्यान मोड़कर परमात्मा की ओर लगाये।३५ इसी प्रकार का वर्णन श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी देखने को मिलता है।३६ अत: साधक को चाहिए कि वह विषय भोगों से इन्द्रिय, मन और बद्धि को मोड़कर सर्वव्यापी परमात्मा के साथ एकता स्थापित करने का प्रयास करे। इस तरह साधक सभी दोषों को ध्यान के द्वारा नष्ट कर परमात्मा के स्वरूप में स्थित होने के योग्य बनता है, जहाँ से वह वापस नहीं लौटता।३७ परमात्म-प्राप्ति की बात को वेदव्यास ने निम्न रूप में प्रस्तुत किया है - जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, वही योगी निश्चल मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा जिसकी उपलब्धि होती है उस अजन्मा, पुरातन, अजर-अमर, सनातन, नित्ययुक्त, अणु से भी अणु और महान से भी महान परमात्मा का आत्मा से अनुभव करता है।३८
इस तरह महाभारत में यौगिक प्रक्रियाओं का विभिन्न रूपों में वर्णन मिलता है। गीता में योग
गीता, जो महाभारत का ही अंग है, में योग का सांगोपांग वर्णन किया गया है। इसमें 'योग' शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। कभी वह ज्ञान के साथ जुड़कर ज्ञानयोग के नाम से जाना गया है तो कभी कर्म के साथ जुड़कर कर्मयोग और कभी भक्ति के साथ जुड़कर भक्तियोग के नाम से। शंकराचार्य ने अपने भाष्य में लिखा है कि गीता ज्ञानयोग
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