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भारतीय योग- परम्परा : एक परिचय
योगचूड़ामण्युपनिषद्, योगतत्त्वोपनिषद्, योगशिखोपनिषद्, वराहोपनिषद्, शाण्डिल्योपनिषद्, हंसोपनिषद्, योगराजोपनिषद् ।
उपर्युक्त उपनिषदों के अतिरिक्त अड्यार लाईब्रेरी से १७ उपनिषदों का एक अन्य संग्रह प्रकाशित हुआ है, जो योग से सम्बन्धित है । १७ उपनिषदें इस प्रकार हैं
१. अवधूतोपनिषद्, २. आरण्योपनिषद्, ३. कठरुद्रोपनिषद्, ४. कुण्डिकोपनिषद् ५. जाबालोपनिषद्, ६. तुरीयातीतावधूतोपनिषद्, ७ नारदपरिव्राजकोपनिषद्, ८. निर्वाणोपनिषद् ९. परिब्रह्मोपनिषद्, १०. परमहंसपरिव्राजकोपनिषद्, ११. परमहंसोपनिषद्, १२. ब्रह्मोपनिषद् १३. भिक्षुकोपनिषद्, १४. मैत्रथ्युपनिषद्, १५. याज्ञवल्क्योपनिषद्, १६. शाट्यायनीयोपनिषद्, १७. संन्यासोपनिषद्
इस प्रकार योग-साधना की प्रत्येक विधाओं का उपनिषदों में विशद् वर्णन किया गया है जिसके फलस्वरूप ही आज नवीन नवीन योग धाराओं का प्रस्फुटन हो रहा है। परन्तु यह भी सत्य है कि उपनिषदों में वर्णित योग आध्यात्मिक अर्थ को ही विशेषत: प्रस्तुत करता है ।
महाभारत में योग
महाभारत भारतीय संस्कृति का एक अनुपम ग्रन्थ है, जो अट्ठारह भागों में विभक्त है। इसके अनुशासन - पर्व, शान्तिपर्व तथा भीष्मपर्व में महर्षि वेदव्यास ने यौगिक प्रक्रियाओं का विस्तार से वर्णन किया है। जीवन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को मोड़कर अन्तर्मुखी कर देना ही यौगिक प्रक्रिया है । सर्वप्रथम महर्षि वेदव्यास ने साधक के मन को सुदृढ़ करने, इन्द्रियों की ओर से मन को समेटने तथा मन:पूर्वक योगाभ्यास करने का आदेश दिया है, ३३ क्योंकि मन अतिचंचल होता है, इसलिए अतिचंचल इन्द्रियों को वश में करना आवश्यक है। जब साधक अपने मन को स्थिर एवं वश में कर ले तब उसे हृदय के रागादि दोषों को नष्ट करके योग में सहायता पहुँचानेवाले देश, कर्म, अनुराग, अर्थ, उपाय, अपाय, निश्चय, चक्षुष, आहार, संहार, मन और दर्शन इन बारह योगांगों के आश्रय से ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिए। ३४ एकान्त, निर्जन या गुफा आदि स्थान जो ध्यान के लिए उपयोगी हो, में आसन लगाने को देशयोग कहा जाता है। आहार-विहार, चेष्टा, सोना- जागना आदि नियमानुकूल क्रिया कर्मयोग कहलाता है। परमात्मा एवं उसकी प्राप्ति के साधनों में तीव्र अनुराग रखना अनुरागयोग और केवल आवश्यक सामग्री को ही रखना अर्थयोग कहलाता है। ध्यानोपयोगी आसनों में बैठना उपाययोग है। संसार के विषयों और सगे-सम्बन्धियों से आसक्ति तथा ममता हटा लेने
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