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________________ ध्यान १८५ (१) ध्याता मुमुक्षु हो, (२) संसार से विमुक्त हो, (३) क्षोभरहित व शान्तचित्त हो, (४) वशी हो, (५) स्थिर हो, (६) जितेन्द्रिय हो, (७) संवरयुक्त हो, (८) धीर हो। जिस किसी वस्तु या तत्त्व का आलम्बन लिया जाता है, वह ध्येय कहलाता है। इसे हम यदि और सरलभाषा में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि जिसका ध्यान किया जाता है वह ध्येय कहलाता है। साधक को बिना किसी ध्येय के ध्यान होना असंभव है। चारित्रसार में कहा गया है- जो शुभाशुभ परिणामों का कारण हो वह ध्येय है।२४ इसी प्रकार ध्याता का ध्येय में स्थिर हो जाना, एकाग्रचित्त होना ध्यान कहलाता है। तत्त्वानुशासन में षट्कारमयी आत्मा को ही ध्यान कहा गया है।२५ तात्पर्य है कि निश्चय नय से कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण- ये षटकारमयी आत्मा कहलाती हैं और ये षट्कारमयी आत्मा ही ध्यान है। ध्यान-साधना की सफलता के साधन ध्यान-साधना की सफलता के लिए जैन ग्रन्थों में ध्यान की कुछ सामग्रियाँ बतायी गयी हैं, जो इस प्रकार हैं- परिग्रहों का त्याग, कषायों का निग्रह, व्रत-धारण, मन तथा इन्द्रियों का संयम आदि ध्यान की उत्पत्ति में सहायक सामग्री हैं।२६ साथ ही साथ साधक को वाणी पर संयम तथा शरीर की चंचलता का निषेध करना चाहिए।२७ तत्त्वानुशासन में ध्यान की सिद्धि के लिए सद्गुरु, सम्यक्-श्रद्धान, निरन्तर अभ्यास तथा मन स्थिरता पर विशेष प्रकाश डाला गया है।२८ ध्यान की प्रक्रिया को सामग्री के रूप में प्रस्तुत करते हुए भगवती आराधना की विजयोदया टीका में कहा गया है कि नाक के अग्रभाग पर दृष्टि को स्थिर करके एक विषयक परोक्षज्ञान में चैतन्य को रोककर शुद्ध चिद्रूप अपनी आत्मा में स्मृति का अनुसंधान करना चाहिए।२९ ध्यान के प्रकार जैनागमों में मुख्य रूप से दो प्रकार के ध्यानों का वर्णन मिलता है-प्रशस्त ध्यान और अप्रशस्त ध्याना० जो ध्यान शुभ परिणामों से किया जाता है उसे प्रशस्त ध्यान कहते हैं और जो अशुभ परिणामों से किया जाता है उसे अप्रशस्त ध्यान कहते हैं। इन दो ध्यान के दो-दो भेद हैं। प्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान आते हैं और अप्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत आर्त और रौद्र। विभिन्न जैन ग्रन्थों में ध्यान के इन्हीं चार भेदों (धर्म, शुक्ल, आर्त और रौद्र) का उल्लेख मिलता है।३१ चूँकि आर्त और रौद्रध्यान अप्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत आते हैं, इसलिए इन दो ध्यानों को संसार के कारण और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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