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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन १८४ स्पष्ट किया जा सकता है कि शरीर का शिथिलीकरण या स्थिरीकरण कायिक ध्यान है । वाणी का ध्येय के साथ योग अर्थात् ध्येय और वचन में समापत्ति यानी दोनों का एकरस हो जाना वाचिक ध्यान है । मन का ध्येय के साथ योग मानसिक ध्यान है। सही माने में देखा जाय तो ध्यान वह प्रक्रिया है जिसमें संसार बंधनों को तोड़नेवाले वाक्यों के अर्थों का चिन्तन किया जाता है, यानी समस्त कर्ममल नष्ट होने पर केवल वाक्यों का आलम्बन लेकर आत्मस्वरूप में लीन होने का प्रयास किया जाता है । तत्त्वानुशासन तथा ज्ञानार्णव ध्यान की इस अवस्था को समरसीभाव तथा सवीर्यध्यान" के नाम से इंगित किया गया है। इन सब परिभाषाओं से कुछ अलग हटकर युवाचार्य महाप्रज्ञ जी ने ध्यान का लक्षण बताया है। उन्होंने कहा है- ध्यान चेतना की वह अवस्था है जो अपने आलम्बन के प्रति एकाग्र होती है अथवा बाह्य शून्यता होने पर भी आत्मा के प्रति जागरुकता अबाधित रहती है।१८ आगे उन्होंने लिखा है कि चिन्तन - शून्यता ध्यान नहीं और वह चिन्तन भी ध्यान नहीं, जो अनेकाग्र है। एकाग्र चिन्तन ही ध्यान है, भावक्रिया ध्यान है और चेतना के व्यापक प्रकाश में चित्त विलीन हो जाता है, वह ध्यान है । १९ इस प्रकार जैन धर्म-दर्शन में मन, वचन और काय की एकाग्र प्रवृत्ति को ही ध्यान माना गया है। परन्तु यह सहज ही प्रश्न उठ खड़ा होता है कि हम चित्त की एकाग्रता को ही ध्यान की संज्ञा क्यों देते हैं ? उत्तरस्वरूप आवश्यकनियुक्ति का यह उद्धरण दिया जा सकता है कि जहाँ मन एकाग्र व अपने लक्ष्य के प्रति व्यापृत होता है तथा शरीर और वाणी भी उसी लक्ष्य के प्रति व्यापृत होते हैं, वहाँ मानसिक, कायिक और वाचिक ये तीनों ध्यान एक साथ हो जाते हैं । २° तात्पर्य है कि जहाँ कायिक या वाचिक ध्यान होता है वहाँ मानसिक ध्यान भी होता है, किन्तु वहाँ कायिक और वाचिक ध्यान की प्रधानता नहीं होती इसलिए वह मानसिक ही कहलाता है । निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मनसहित वाणी और काय के व्यापार का नाम भावक्रिया है और जो भावक्रिया है वह ध्यान है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा में जड़तामय शून्यता व चेतना की मूर्च्छा को ध्यान कहना इष्ट नहीं माना गया है। ध्याता, ध्येय और ध्यान की त्रिपुटी ध्यान के प्रमुख तीन अंग या तत्त्व माने गये हैं— ध्याता, ध्येय और ध्यान | २१‍ परन्तु ज्ञानार्णव में ध्याता, ध्येय और ध्यान के अतिरिक्त फलम्, एक चौथे अंग का भी वर्णन है । २२ ध्यान करनेवाले को ध्याता कहते हैं। ध्याता के लक्षण को निरूपित करते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है कि ध्याता में निम्नलिखित आठ गुण रहने आवश्यक हैं वरना ध्यान - सिद्धि नहीं हो सकती । १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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