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________________ ध्यान . १८३ जैन धर्म एवं दर्शन में 'ध्यान' के लिए 'झाण' अथवा 'झान' शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है। ध्यान शब्द 'ध्यै चिन्तायाम' धातु से निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ होता है-चिन्तन करना। किन्तु ध्यान का यह अर्थ उत्पत्ति की दृष्टि से है, प्रवृत्तिलभ्य दृष्टि से कुछ और ही अर्थ निकलता है। ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं बल्कि चिन्तन का एकाग्रीकरण अर्थात् चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना या उसका निरोध करना, ध्यान का अर्थ होता है। जैन ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में मन की वृत्ति का एक ही वस्तु पर अवस्थान अर्थात् मन की वृत्तियों को एक स्थान पर केन्द्रित करने को ध्यान कहा गया है। ध्यान मन की बहुमुखी चिन्तनधारा को एक ही ओर प्रवाहित करता है जिससे साधक अनेक-चित्तता से दूर हटकर एक चित्त में स्थित होता है। एक चित्त में स्थित होना ही ध्यान है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार निश्चल अग्निशिखा के समान अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है। तत्त्वार्थसूत्र में ही आगे कहा गया है कि उत्तम संहननवाले का एकाग्रचिन्ता निरोध ध्यान है। स्थानांग में संहनन के छः प्रकार बताये गये हैं- १. वज्र ऋषभनाराच, २. ऋषभनाराच, ३.नाराच, ४. अर्द्धनाराच, ५. कीलिका, ६. सम्वर्तक। इनमें से प्रथम तीन संहनन ध्यान के लिए उत्तम मान गये हैं। इसी प्रकार ध्यान में स्थिर अध्यवसाय को ध्यान का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि एकाग्रता को प्राप्त मन ही ध्यान है, अर्थात् परिस्पन्दन से रहित एकाग्र चिन्तन का निरोध ध्यान है। आदिपुराण में चित्त को एकाग्ररूप से निरोध करना ध्यान का लक्षण बतलाया गया है। ध्यान ही योग है और यही प्रसंख्यान समाधि के नाम से भी जाना जाता है।११ तत्त्वानुशासन में ध्यान को संवर और निर्जरा का कारण माना गया है।१२ वस्तुत: राग, द्वेष और मिथ्यात्व के सम्पर्क से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करनेवाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है, वह ध्यान है। चित्त को किसी एक वस्तु या बिन्दु पर अन्तर्मुहूर्त से ज्यादा देर तक टिका पाना मुश्किल होता है, साथ ही एक मुहूर्त ध्यान में व्यतीत हो जाने के पश्चात् चित्त स्थिर नहीं रह पाता। संयोगवश यदि हो भी जाये तो ध्यान की अपेक्षा चिन्तन के नाम से जाना जायेगा अथवा आलम्बन की भिन्नता से दूसरा ध्यान कहलायेगा।२३ ध्यान की इन सब परिभाषाओं और लक्षणों से बिल्कुल भिन्न परिभाषा तत्वार्थाधिगमसूत्र में बताया गया है। कहा गया है कि वचन, काय और चित्त का निरोध ही ध्यान है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा में ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से ही नहीं माना गया है बल्कि वह मन, वाणी और शरीर तीनों से सम्बन्धित है। इसी आधार पर ध्यान की पूर्ण परिभाषा देते हुए आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है-शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति तथा उसकी निरंजन दशा,निष्पकम्प दशा ध्यान है।५ इसे दूसरी भाषा में इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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