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________________ योग-र -साधना का आचार पक्ष १६९ पंचशील का भी समावेश हो जाता है। भिक्षुओं के लिए दश शील १५५ निम्नलिखित हैं १. प्राणातिपात - विरमण २. अदत्तादान - विरमण ३. अब्रह्मचर्य या कामेसुमिच्छाचार - विरमण ४. मृषावाद - विरमण ५. सुरामद्यमैरेय - विरमण ६. विकाल भोजनविरमण ७. नृत्य-गीत-वादित्र - विरमण ८. माल्यधारण, गन्ध विलेपन - विरमण ९. उच्च शय्या - विरमण १०. जातरूप रजत ग्रहण- विरमण | प्राणातिपात - विरमण - बौद्ध परम्परा में मन, वचन और काय से कृत, कारित और अनुमोदित हिंसा का निषेध किया गया है। अहिंसा का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि सभी प्राणियों को उसी प्रकार से देखना चाहिए जिस प्रकार माँ अपने एकलौते पुत्र को देखती है। १५६ अतः सभी को यह सोचना चाहिए कि जैसा मैं हूँ, वैसा ही दूसरा भी है तथा जैसा दूसरा है, वैसा ही मैं हूँ। इस तरह आत्मसदृश मानकर न तो किसी का घात करना चाहिए और न ही करवाना चाहिए । घात करनेवाला कभी भी आर्य कहलाने के योग्य नहीं होता है। परन्तु यहाँ ध्यान देने की आवश्यकता है कि बौद्ध परम्परा में भी वनस्पति, पृथ्वी आदि को सूक्ष्म प्राणियों से युक्त माना गया है ऐसा कहा जा सकता है, क्योंकि वनस्पति को तोड़ना तथा भूमि को खोदना आदि भिक्षु के लिए वर्जित है, इनमें प्राणियों की हिंसा होने की संभावना रहती है । १५७ Jain Education International अदत्तादान - विरमण - कोई भी वस्तु बिना उसके स्वामी की आज्ञा के ग्रहण करना अदत्तादान है। विनयपिटक में कहा गया है कि जो भिक्षु बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करता है तो वह अपने श्रमण पद से च्युत हो जाता है। १५८ इतना ही नहीं यदि कोई भिक्षु फूल को सूँघता है तो वह चोरी करता है । १५९ अतः कहा जा सकता है कि बौद्ध आचार्यों न केवल उन बाह्य वस्तुओं के सन्दर्भ में ही अस्तेय व्रत को स्वीकार किया है जिनका कोई स्वामी हो, बल्कि यह भी माना है कि जंगल से भी बिना दी हुई वस्तु लेना अपराध है। अब्रह्मचर्य - विरमण - भिक्षुओं के लिए स्त्री - सम्पर्क का सर्वथा निषेध है। इसे हम बुद्ध और आनन्द के संवाद द्वारा स्पष्ट रूप से जान सकते हैं। बुद्ध के परिनिर्वाण के पूर्व उनके प्रिय शिष्य आनन्द ने प्रश्न किया - १६० --- भगवान्! हम स्त्रियों के साथ कैसा बर्ताव करें ? बुद्ध ने कहा- उन्हें मत देखो। आनन्द ने पुनः प्रश्न किया कि यदि वे दिखाई दें, तो हम कैसा व्यवहार करें? बुद्ध ने कहा- हे आनन्द! आलाप यानी बातचीत नहीं करनी चाहिए। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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