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________________ १६६ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन बौद्ध परम्परा बौद्ध-परम्परा भी जैन परम्परा की भाँति योग-साधना के आधारभूत तत्त्व के रूप में आचार को ही मान्यता देती है। अन्तर इतना ही है कि जैन परम्परा जिस विशेष प्रक्रिया के लिए आचार शब्द का प्रयोग करती है, उसी विशेष प्रक्रिया के लिए बौद्ध परम्परा में शील शब्द का प्रयोग हुआ है। जैसा कि विशुद्धिमार्ग में कहा गया है शील का तात्पर्य धर्म को धारण करना, कर्तव्यों में प्रवृत्त होना तथा अकर्तव्यों से पराङ्गमुख होना है।१४० परन्तु इतना अवश्य है कि बौद्ध-परम्परा में गृहस्थों की अपेक्षा श्रमणों (भिक्षुओं) के आचार-विचार, खान-पान, रहन-सहन आदि से सम्बन्धित नियम-उपनियमों का विधान विशेष रूप से किया गया है। विशुद्धिमार्ग में ही आचार की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि यदि भिक्षु अल्पश्रुत भी हो, किन्तु शीलवान् हो तो शील ही उसकी प्रशंसा का कारण होता है। उसके लिए श्रुत अपने-आप पूर्ण हो जाता है। इसके विपरीत यदि भिक्षु बहुश्रुत भी है; किन्तु दुःशील है तो दुःशीलता उसकी निन्दा का कारण है और उसके लिए सुख भी सुखदायक नहीं होता है।१४१ बौद्ध परम्परा की आचार-पद्धति भी दो भागों में विभक्त है- श्रावकाचार तथा श्रमणाचार। दोनों ने अन्तर पाया जाना स्वाभाविक है किन्तु कहीं-कहीं श्रावक और श्रमण के आचार में कोई विशेष अन्तर नहीं दिखाई पड़ता है। श्रावकों की आचारसंहिता सर्वप्रथम श्रावक में सम्यक्-श्रद्धा का होना आवश्यक है अर्थात् उसे बुद्ध, धर्म और संघ में श्रद्धा रखते हुए यह विचार करना चाहिए कि भगवान् का श्रावक-संघ सूप्रतिपन्न है, भगवान् का श्रावक-संघ ऋजु प्रतिप्रन है, भगवान् का श्रावक-संघ न्याय प्रतिपन्न है, भगवान् का श्रावक-संघ उचित पथ प्रतिपन्न है, यह आदर करने योग्य है, यह सत्कार करने योग्य है, यह दक्षिणा के योग्य है, यह हाथ जोड़ने योग्य है। यह अशुद्ध चित्त की शुद्धि तथा मैले चित्त की निर्मलता का कारण है।१४२ गृहस्थ उपासक के लिए 'अष्ट-शील' का वर्णन आता है। जिनमें पाँच१४२तो सामान्य शील हैं तथा तीन उपोसथ शील हैं। ये इस प्रकार हैंपंचशील अहिंसा-संसार के सभी त्रस एवं स्थावर प्राणियों के प्रति हिंसा का तीनों करण से त्याग अर्थात् न तो प्राणी का वध करना चाहिए, न करवाना चाहिए और न करने की दूसरों को अनुमति ही देनी चाहिए। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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