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योग-साधना का आचार पक्ष
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निर्जरानुप्रेक्षा- निर्जरा का अर्थ होता है-कर्म-क्षय और उससे होनेवाली आत्मस्वरूप की उपलब्धि। अत: आत्मा के शुद्ध-निर्मल रूप का चिन्तन करना ही निर्जरानुप्रेक्षा कहलाता है।१३४
धर्मानुप्रेक्षा - धर्म ही गुरु और मित्र है, धर्म ही स्वामी और बन्धु है। क्षमादि दस धर्मों का बार-बार चिन्तन करना धर्मानुप्रेक्षा है।
लोकानुप्रेक्षा - यह संसार अनादि और अनन्त है। यह न तो किसी के द्वारा बनाया गया है और न ही धारण किया गया है। इस प्रकार का चिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा कहलाता है।
बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा - आत्मज्ञान का चिन्तन करना ही बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है, क्योंकि चारों गतियों में भ्रमण करनेवाले जीवों के लिए चार बातों की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है- मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा एवं संयम में पुरुषार्थ।२३५ इन चार दुर्लभ तत्त्वों का सहारा लेकर ही साधक आत्मस्वरूप की प्राप्ति या ज्ञान-प्राप्ति का पुरुषार्थ करता है।
इस प्रकार उपर्युक्त बारह अनुप्रेक्षाओं के पालन में साधक संसार सम्बन्धी दु:ख, सुख, पीड़ा, जन्म-मरण आदि का चिन्तन-मनन करता हुआ अन्तर्मुखी वृत्ति को प्राप्त करता है और उसकी रागद्वेषादि की भावना क्षीण होती है, फलत: वह आत्मशुद्धि की प्राप्ति करता है। परीषह
समभावपूर्वक सहन करना परीषह कहलाता है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है- मार्ग से च्युत न होने और कर्मों के क्षयार्थ जो सहन करने योग्य हो, परीषह है।१३६ यद्यपि तपश्चर्या में भी कष्टों को सहन करना पड़ता है, लेकिन तपश्चर्या में स्वेच्छा से कष्ट सहन किया जाता है, जबकि परीषह में स्वेच्छा से कष्ट सहन नहीं किया जाता बल्कि श्रमणमुनि आदि जीवन में नियमों का परिपालन करते हुए आकस्मिक रूप से यदि कोई संकट उपस्थित हो जाता है, तो उसे सहन करना पड़ता है। परीषहों की संख्या बाईस बतायी गयी है। इन परीषहों को जीतना साधक के लिए आवश्यक है, क्योंकि परीषह-विजय के बिना चित्त की चंचलता समाप्त नहीं होती, मन एकाग्र नहीं होता। फलत: न सम्यक् ध्यान होता है और न कर्मों का क्षय ही हो पाता है।
तत्त्वार्थसूत्र, १३७ उत्तराध्ययनर३८ तथा समवायांगर ३९ के अनुसार बाईस परीषह निम्नलिखित हैं- क्षुधा-परीषह, तृषा-परीषह, शीत-परीषह, उष्ण-परीषह, दंशमशक- परीषह, अचेल-परीषह, अरति-परीषह, स्त्री-परीषह, चर्या-परीषह, निषधा-परीशह, शय्या- परीषह, आक्रोश-परीषह, वध-परीषह, याचना-परीषह, अलाभ-परीषह, रोग-परीषह, तण-स्पर्शपरीषह, मल-परीषह, सत्कार-परीषह, प्रज्ञा-परीषह, अज्ञान-परीषह और दर्शन- परीषह।
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