SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन ___ अनित्यानुप्रेक्षा - इस संसार में शरीरादि जितने भी भौतिक पदार्थ हैं, वे सब जल के बुलबुले के समान हैं। अत: यह संसार अनित्य, अस्थिर तथा नाशवान है, ऐसा चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा कहलाता है१३० ____ अशरणानुप्रेक्षा - जिस प्रकार सघन वन में सिंह द्वारा पकड़ा हुआ बच्चा अपनी रक्षा नहीं कर सकता, उसका कोई शरण नहीं होता, उसी प्रकार संसार रूपी सिंह द्वारा पकड़े गये बालपन, यौवन एवं बुढ़ापा रूपी व्यक्ति अपनी रक्षा की सोचता है, तब उसके दुःख में हाथ बटाने कोई नहीं आता। सारा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है, क्योंकि विद्या, मंत्र, औषधि या जड़ी-बुटी से किसी की मृत्यु टलती नहीं है।१३१ अत: सहारे के रूप में एक मात्र धर्म ही दिखाई पड़ता है। व्यक्ति का यही सोचना कि धर्म की शरण में जाना ही श्रेयष्कर है, अशरणानुप्रेक्षा है। संसारानुप्रेक्षा - यह जीव संसार के चक्कर में फँसकर सर्वदा नाना योनियों में भटकता रहता है। कभी शुभ कर्मों के वशीभूत होकर स्वर्ग का आनन्द लेता है, तो कभी अशुभ कर्मों के वशीभूत होकर नरक की यातना सहता है। ऐसे ही निम्न योनियों में भटकता रहता है। संसार के स्वरूप का ऐसा चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा कहलाता है।१३२ एकत्वानुप्रेक्षा - संसार में जितने भी सम्बन्ध हैं, चाहे वह माँ का हो या पिता का हो या फिर भाई का हो, सभी मिथ्या हैं। इस संसार में जीव अकेला पैदा होता है और अकेला मरता है। सुख-दुःख, पीड़ा, शोक, वेदना आदि उसी जीव को सहन करने पड़ते हैं। इस तरह का चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा कहलाता है। अन्यत्वानुप्रेक्षा - संसार एवं संसार की वस्तुएँ सब मुझसे भिन्न हैं। संसार जड़ है, मैं चेतन हूँ। अत: बाह्य वस्तुओं का चेतन (जीव) से कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है।१३३ __ अशुचित्वानुप्रेक्षा - रुधिर, मांस आदि अनेक वीभत्स वस्तुओं के संयोग से बना यह शरीर अत्यन्त अशुचि है। इसे स्नान विलेपनादि से किसी प्रकार शुद्ध नहीं किया जा सकता, ऐसी भावना अशुचित्वानुप्रेक्षा है। आस्रवानुप्रेक्षा - आस्रव के स्वरूप का चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। संवरानुप्रेक्षा- आस्रव का निरोध संवर है। यहाँ से मोक्ष की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है जिसमें आते हुए नये कर्मों को रोकने का प्रयास किया जाता है। यह दो प्रकार का होता है- भाव-संवर एवं द्रव्य- संवर। साधक जब उन नैतिक प्रयत्नों के लिए उत्सुक होता है जिनसे नये कर्म रोके जाते हैं, तब उसे भाव संवर कहते हैं और जब नए कर्मों का आना बन्द हो जाता है तब उसे द्रव्य संवर कहते हैं। संवर का इस प्रकार चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy