________________
योग-साधना का आचार पक्ष
१५३
समग्र भूमण्डल पर अपना एक छत्र साम्राज्य स्थापित करना चाहती है। अपनी इसी अनन्त इच्छा को त्यागवृत्ति के द्वारा मर्यादित करना दिग्वत है। इसीलिए इसे दिशा-परिमाण के नाम से भी जाना जाता है। दिशा-परिमाण व्रत का उद्देश्य ही है मनुष्य की उद्गम वासनाओं को नियन्त्रित करना। इस व्रत को ग्रहण करते समय श्रावक यह संकल्प लेता है कि वह जीवनपर्यन्त अमुक् दिशा की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेगा।६८ इसके पाँच अतिचार बताये गये हैं, जिनसे श्रावक को बचना चाहिए।
(१) उर्ध्वदिशा-परिमाण-अतिक्रमण - ऊँची दिशा के निश्चित परिमाण का उल्लंघन करने पर लगनेवाले दोष का नाम उर्ध्वदिशा-परिमाण-अतिक्रमण है।
(२) अधोलिखित-परिमाण-अतिक्रमण - नीचे की दिशा के परिमाण का उल्लंघन करने पर लगनेवाला दोष अधोदिशा- परिमाण-अतिक्रमण है।
(३) तिर्यकदिशा-परिमाण-अतिक्रमण- उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम तथा उनके कोणों में गमनागमन की मर्यादा के उल्लंघन से लगनेवाला दोष तिर्यक्-दिशा परिमाण-अतिक्रमण है।
(४) क्षेत्रवृद्धि - मनमाने ढंग से क्षेत्र की मर्यादा को बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि अतिचार है।
(५) स्मृत्यन्तर्धा - सीमा का स्मरण न रहने पर लगनेवाला दोष स्मृत्यन्तर्धा अतिचार है। (२) अनर्थदण्डव्रत
___ बिना किसी प्रयोजन के हिंसा करना अनर्थदण्ड कहलाता है और हिंसापूर्ण व्यापार के अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना अनर्थदण्ड-विरमण व्रत है। अनर्थदण्ड व्रत का पालन करनेवाला गृहस्थ निरर्थक किसी की हिंसा नहीं करता और न निरर्थक वस्तु का संग्रह ही करता है, अर्थात् अनर्थदण्ड-विरमण व्रत में श्रावक निष्प्रयोजन पापपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग करता है। जैसे- (१) अपध्यान (२) प्रमादाचरण (३) हिंसादान (४) पापकर्मोपदेश
इन कार्यों को किसी भी रूप में न करना ही श्रावक के लिए श्रेयष्कर है। अहिंसादि व्रतों के सम्यक् पालन के लिए तथा आत्मविशुद्धि के लिए अनर्थदण्ड का त्याग करना चाहिए। यह त्यागरूप व्रत ही अनर्थदण्ड व्रत है,६९ अन्य व्रतों की भाँति इसके भी पाँच अतिचार बताये गये हैं
इन क
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org