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________________ १४६ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन श्रावक-धर्म के विषय में भी मतैक्यता नहीं है। डॉ०मोहनलाल मेहता ने अपनी पुस्तक जैन आचार में उल्लेख किया है कि उपासकदशांग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डकश्रावकाचार आदि में संलेखना सहित बारह व्रतों के आधार पर श्रावक-धर्म का प्रतिपादन किया गया है। वहीं आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र प्राभृत में, स्वामीकार्तिकेय ने द्वादशानुप्रेक्षा में एवं आचार्य वसुनन्दि ने वसुनन्दिश्रावकाचार में ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावकधर्म का निरूपण किया है।५ . श्रावक के बारह व्रत योगशास्त्र में श्रावक के बारह व्रत इस प्रकार कहे गये हैं- पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत।१६ आचार्य कुन्दकुन्द ने ग्यारह प्रतिमाओं के साथ ही बारह व्रतों का उल्लेख किया है। परन्तु कहीं-कहीं पाँच अणुव्रतों को मूलगुण मानते हुए मद्य, माँस एवं मधु का त्याग भी मूलगुण के अन्तर्गत रखा गया है।१८ अणुव्रत जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण के लिए पाँच महाव्रत का विधान किया गया है, उसी प्रकार श्रावक के लिए पाँच अणव्रतों का विधान है। कहा जा सकता है कि जैसे महाव्रतों के अभाव में श्रमण का श्रामण्य निर्जीव-सा प्रतीत होता है, वैसे ही अणुव्रतों के अभाव में श्रावक का श्रावकत्व निष्प्राण लगता है। यही कारण है कि अणुव्रतों को श्रावक का मूलगुण कहा गया है। महाव्रतों का पालन तीन योग अर्थात् मन, वचन, कर्म तथा तीन करण यानी करना, करवाना और अनुमोदन करना, से पालन किया जाता है, १९ जबकि अणुव्रतों का पालन तीन योग तथा दो कारण (करना और करवाना) से किया जाता है।२० श्रावक के मूलगुण रूपी पाँच अणुव्रत इस प्रकार हैंस्थूल प्राणातिपात-विरमण गृहस्थ साधक स्थूल हिंसा अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा से विरत होता है। इसीलिए इस अणुव्रत का नाम स्थूल प्राणातिपात विरमण रखा गया है।२१ इसे अहिंसाणुव्रत भी कहा जाता है। जैसा कि उपासकदशांग में कहा गया है कि मैं किसी भी निरपराधनिदोष स्थूल बस प्राणी की जान-बूझकर संकल्पूर्वक मन, वचन और कर्म से न तो स्वयं हिंसा करूँगा और न करवाउँगा।२२ जैन परम्परा में प्राणी दो प्रकार के माने गये हैं-स्थूल और सूक्ष्म। चूँकि सूक्ष्म प्राणी चक्षु आदि इन्द्रियों से नहीं जाने जा सकते, अत: गृहस्थ साधक को मात्र स्थूल प्राणियों की हिंसा से बचने का विधान है। ऐसे जैन तत्त्वज्ञान में प्राणियों के त्रस एवं स्थावर दो वर्गीकरण किये गये हैं। त्रस के अन्तर्गत वे प्राणी आते हैं जो स्वेच्छानुसार गति का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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