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________________ योग-साधना का आचार पक्ष १४५ विनियोग - इस अवस्था में साधक में धार्मिक वृत्तियों की क्षमता आ जाती है तथा निरन्तर आत्मिक विकास होने लगता है। फलत: साधक मे परोपकार, कल्याण आदि भावनाओं की वृद्धि होती है। वृद्धि की यही अवस्था विनियोग' कहलाती है। इनके अतिरिक्त विभिन्न व्रतों, क्रियाओं, विधियों, नियमों-उपनियमों आदि का विधान किया गया है जिनमें, आसन, प्राणायाम, धारणा, प्रत्याहार, ध्यान आदि प्रमुख माने गये हैं। कहा भी गया है कि ध्यानादि उत्तरोत्तर चित्त की शुद्धि करते हैं इसलिए ये चारित्र ही है।१० जैन परम्परा दो प्रकार की आचारसंहिताओं का विधान करती है- एक श्रावकों की और दूसरी श्रमणों की, क्योंकि दोनों की साधना-भूमि अथवा जीवन-व्यवहार अलगअलग हैं। मनि जहाँ बाह्य एवं आभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्यागी होता है वहीं श्रावक कुछ परिग्रहों का त्यागी होता है। इसलिए दोनों के लिए अलग-अलग आचार का विधान किया गया है। श्रमणों की तुलना में श्रावकों को परिस्थिति एवं काल की अपेक्षा से मर्यादित व्रत-नियमों का पालन करना पड़ता है, फिर भी योग-साधना के लिए उसे पूरी छूट है। मुनि या श्रमण तो पूर्ण विरक्त या गृहत्यागी होते हैं जिससे वे योग-साधना करने में सक्षम होते हैं, लेकिन एक श्रावक के सर्वत्यागी बनने में शंका उपस्थित होती है, क्योंकि जीवकोपार्जन के लिए उसे विविध उद्योग आदि का आलम्बन लेना पड़ता है। ऐसे तो श्रमण की भाँति वह भी सम्पूर्ण परिग्रह से मुक्त होकर योग-साधना में संलग्न हो सकता है। इन्हीं दृष्टियों को ध्यान में रखते हए जैन परम्परा में दो आचार संहिताओं का विधान किया गया है। एक का नाम है श्रावकाचार तो दूसरे का नाम है श्रमणाचार। श्रावकों की आचार-संहिता जैनागमों में श्रावक के लिए विभिन्न शब्दों के प्रयोग देखने को मिलते हैं, यथादेशसंयमी, गृहस्थ, श्राद्ध उपासक, अणुव्रती, देशविरत, आगारी आदि।११ श्रावकों के प्रकारों को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कोई श्रावक के दो भेद को मानते हैं, तो कोई तीन और कोई चार। जैसे धर्मामृत में श्रावक के तीन प्रकार बताये गये हैं १- पाक्षिकजो निर्ग्रन्थ धर्म में श्रद्धा रखता है। २. नैष्ठिक-जो श्रावक धर्म का पालन करता है और ३. साधक-जो आत्मध्यान में लीन रहता हआ संलेखना लेता है।२ चारित्रसार में श्रावक को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चार आश्रमों के रूप में प्रस्तुत किया गया है।१२ इसी प्रकार धर्मबिन्दु में आचार्य हरिभद्र ने सामान्य-विशेष के रूप में श्रावक के दो भेद बताये हैं।१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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