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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
वश में करना ही सम्यग्योग का प्रथम सोपान है। कहा भी गया है मन की समाधि योग का हेतु तथा तप का निदान है, क्योंकि मन को केन्द्रित करने के लिए तप आवश्यक है, तप शिवशर्म का, मोक्ष का मूल कारण है।
ध्यान और मन का सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ है। ध्यान का स्थिरीकरण मन की स्थिरता पर ही निर्भर करता है। आचार्य हेमचन्द्र ने मन की चार अवस्थाओं का वर्णन किया है- १. विक्षिप्त मन २. यातायात मन ३. श्लिष्टमन और ४. सुलीन मन।
प्रथम दो अवस्थाओं में अर्थात् विक्षिप्त और यातायात में मन स्वभाव से चंचल होता है। दोनों में अन्तर इतना ही है कि प्रथम अवस्था में चंचलता अधिक होती है और द्वितीय अवस्था में चंचलता प्रथमावस्था की अपेक्षा थोड़ी कम होती है। अत: इन दोनों की शान्ति के लिए अभ्यास आवश्यक है। इसी प्रकार श्लिष्ट मन की अवस्था यातायात के बाद प्रारम्भ होती है। श्लिष्ट अवस्था में मन का निरोध होने से चित्तवृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं तथा साधक को आन्तरिक शक्ति का आभास होने लगता है। सुलीनावस्था में साधक आत्मलीन हो जाता है तथा उसे परमानन्द की स्वानुभूति होने लगती है।' मन या चित्तशुद्धि के उपाय
जैन ग्रन्थ षोडशक में चित्तशद्धि के पाँच प्रकारों का वर्णन आया है। चित्तशद्धि के बिना साधक साधना में संलग्न हो ही नहीं सकता। अत: योग-साधना के आधारभूत तत्त्व के रूप में चित्तशुद्धि की आवश्यकता पर बल दिया गया है। चित्तशुद्धि के पाँच प्रकार हैं
प्रणिधान - आचार-विचार को संतुलित रखते हुए निम्न कोटि के जीवों के प्रति राग-द्वेष की भावना का न रखना प्रणिधान कहलाता है।
प्रवृत्ति - निर्दिष्ट व्रत-नियमों या अनुष्ठानों का एकाग्रतापूर्वक सम्यक् पालन करना प्रवृत्ति है।
विघ्नजय - यम-नियम आदि का पालन करते समय उपस्थित बाह्य एवं आन्तरिक कठिनाईयों पर विजय प्राप्त करना विघ्नजय कहलाता है। दूसरी भाषा में कह सकते हैं कि योग-साधना के दौरान आनेवाले विघ्नों पर विजय पाना विघ्न-जय है।
सिद्धि - सिद्धि अवस्था में साधक को सम्यक्-दर्शनादि की प्राप्ति होती है और वह आत्मानुभव में किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं करता। कषाय से उत्पन्न उसकी सारी चंचलता नष्ट हो जाती है और वह निम्नवी जीवों के प्रति दया, आदरसत्कार आदि का ख्याल रखने लगता है।
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