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जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार
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दर्शन में दिया गया है। जैन दर्शन में तत्त्वमीमांसा उसका आधार स्वरूप है, जबकि बौद्ध दर्शन में आचारमीमांसा के परिणामस्वरूप तत्त्वमीमांसा उपस्थित होती है जिसे महात्मा बुद्ध के बाद के बौद्धाचार्यों ने महत्त्व दिया है। परन्तु दोनों ही दर्शनों में बन्धन और मोक्ष महत्त्वपूर्ण पक्ष के रूप में स्वीकार किये गये हैं और मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति के लिए योग को महत्त्व दिया गया है। जैन दर्शन में योग सम्यक्-चारित्र के अन्तर्गत प्रतिष्ठित है, जबकि बौद्ध दर्शन में सम्यक्-समाधि के रूप में अष्टांगिक मार्ग में मान्य है।
__ इस प्रकार जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं में योग की तत्त्वमीमांसीय व्याख्या के क्रम में चैत्तसिक एवं अचैत्तसिक सत्ताओं के सम्बन्ध की बात की गयी है। जैन परम्परा में जीव और अजीव ये दोनों मूल तत्त्व माने गये हैं। इन दोनों में जब सम्बन्ध होता है तब दुःख-सुख भोग की अनादि परम्परा का प्रारम्भ होता है। यह परम्परा तब तक अविछिन्न रूप से प्रवाहमान रहती है जब तक कि ये दोनों पुन: अपने मूल रूप में न आ जायें। चैत्तसिक (जीव) तत्त्व को संसाराभिमुख होने में कर्मपुद्गल (अजीव) तत्त्व का सहयोग मिलता है और आस्रव-द्वार को संवर रूपी कपाट से बंदकर, कर्मों को निर्जरित कर जीव शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है। बौद्ध परम्परा में दुःख का कारण अविधा को माना गया है। अविद्या के कारण संस्कार तथा जन्म-जरा-मरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। इन सब से मुक्ति पाने के लिए अष्टांगिक मार्ग का विधान मिलता है।
सन्दर्भ १. यावज्जीवेत सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।
आचारांग, १/४/१/१३२ ३. भारतीय दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त, डॉ० बी०एन० सिन्हा, पृष्ठ-११८ ४. चूलमालुक्य सुत्त, ६३, मज्झिमनिकाय (अनु०) पृ०-२५३-५५ ५. पोठ्ठपाद सुत्त, १/९, दीघनिकाय, पृ०-७१
उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। तत्त्वार्थसूत्र, ५/२९
गुणपर्यायवद् द्रव्यम् । वही, ५/३७ ८. तद्भावाव्ययं नित्यम् । वही, ५/३०
अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसंबद्धं।
गुणवं च सपज्जायं, जं तं दव्वं तिवुच्चंति।। प्रवचनसार, २/९५ १०. अविसेसिए दव्वे, विसेसिए जीव दव्वे या अनुयोगद्वारसूत्र, १२३ ११. जैन धर्म-दर्शन, डॉ० मोहनलाल मेहता, पृ०-१२० १२. विसेसिए जीवदव्वे अजीव दवे या अनुयोगद्वारसूत्र, १२३
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