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________________ १३८ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन नि:स्वभाव है तो कर्म करनेवाले शरीर का भी स्वभाव नहीं होगा,७९ क्योंकि शरीर को कर्म-क्लेश का कर्ता कहा जाता है। जब कर्म-क्लेश ही नि:स्वभाव है तो शरीर भी नि:स्वभाव होगा। अत: नागार्जुन का कहना है कि क्लेश, कर्म, कर्ता और कर्मफल सभी स्वप्न, मृगमरीचिका, गन्धर्व-नगर के समान अस्तित्वविहीन है। यद्यपि आचार्य नागार्जुन ने कर्म-फल की परीक्षा करके यह प्रमाणित किया है कि यह एक मृगमरीचिका है तथापि यह अस्तित्वविहीन है। परन्तु इस बात से नकारा भी नहीं जा सकता कि भगवान् बुद्ध ने कर्म की सत्ता को स्वीकार नहीं किया है। सुत्तनिपात में स्वयं बुद्ध ने कहा है- किसी का कर्म नष्ट नहीं होता। कर्ता उसे प्राप्त करता ही है। पाप कर्म करनेवाला परलोक में अपने को द:खों में पड़ा पाता है। संसार कर्म से चलता है, प्रजा कर्म से चलती है। रथ का चक्का जिस प्रकार से बँधा रहता है उसी प्रकार प्राणी कर्म से बँधे रहते हैं। इसी को आचार्य नरेन्द्रदेव निम्न रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- जीवलोक और भाजन-लोक (विश्व) की विचित्रता ईश्वरकृत नहीं है। कोई ईश्वर नहीं है जिसने बुद्धिपूर्वक इसकी रचना की हो। लोकवैचित्र्य कर्मज है, यह सत्त्वों के कर्म से उत्पन्न होता है।८२ जिससे यह प्रतीत होता है कि भगवान् बुद्ध ने कर्मवाद के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। जिसका स्पष्ट वर्णन मज्झिमनिकाय में मिलता है- एक बार शुभ माणवक ने भगवान् बुद्ध से प्रश्न किया, हे गौतम! क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है कि मनुष्य होते हुए भी मनुष्य रूपवाले में हीनता और उत्तमता दिखाई पड़ती है? हे गौतम! यहाँ मनुष्य अल्पायु देखने में भी आते हैं और दीर्घायु भी, बहुरोगी भी, अल्परोगी भी, कुरूप भी, रूपवान भी, दरिद्र भी, धनवान भी, निर्बुद्धि भी, प्रज्ञावान भी? हे गौतम! क्या कारण है कि प्राणियों में इतनी हीनता और प्रवीणता दिखाई पड़ती है? इसका उत्तर देते हुए भगवान् बुद्ध ने कहा- हे माणवक! प्राणी कर्म स्वयं (वर्म ही जिनका अपना), कर्म-दायाद, कर्म योनि, कर्मबन्ध और प्रतिशरण है। कर्म ही प्राणियों को इस हीनता और उत्तमता में विभक्त करता है।८३ अत: कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म को चैतसिक प्रत्यय के रूप में स्वीकार किया गया है और यह माना गया है कि कर्म के कारण ही आचार, विचार एवं स्वरूप की यह विविधता है। परन्तु, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि बौद्धपरम्परा में कर्म अपना किस प्रकार कार्य करता है और इसका काल स्वभाव से क्या सम्बन्ध है इसका विस्तृत विवेचन नहीं मिलता। यद्यपि जहाँ तक तत्त्वमीमांसा की बात है तो जैन दर्शन तत्त्वमीमांसा से चलकर आचारमीमांसा पर आता है और बौद्ध दर्शन आचारमीमांसा से चलकर तत्त्वमीमांसा पर जाता है। बौद्ध दर्शन में तत्त्वमीमांसा को उतना महत्त्व नहीं दिया गया है जितना कि जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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