________________
जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार
२. कृत व उपचित — इसके अन्तर्गत वे सभी कर्म आ जाते हैं जो संकल्पपूर्वक किये जाते हैं।
३. कृत, पर उपचित नहीं - इसके अन्तर्गत वे कर्म आते हैं जो संकल्पपूर्वक नहीं किये जाते या जो सहसाकृत, भ्रान्तिवश हो जाते हैं, वे उपचित नहीं होते ।
४. न कृत न उपचित- इसके अन्तर्गत स्वप्नावस्था में किये गये कर्म आते हैं।
कर्म-फल
१३७
-
बौद्ध दर्शन में कर्म-फल के संक्रमण की धारणा स्वीकार की गयी है। कहा गया है - यद्यपि कर्म (फल) का विप्रणाश नहीं होता, तथापि कर्म फल का समतिक्रम (संक्रमण) हो सकता है। ७३ विपच्यमान कर्मों का समतिक्रम (संक्रमण) हो सकता है। विपच्यमान कर्म वे होते हैं जिनको बदला जा सकता है अर्थात् जिनका समतिक्रमण ( संक्रमण) हो सकता है, यद्यपि फल भोग अनिवार्य है।७४ आचार्य नरेन्द्रदेव भी बौद्ध दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि कर्म स्वकीय है, जो कर्म करता है वही (सन्तान - प्रवाह की अपेक्षा से) उसका फल भोगता है। ७५ कर्मफल की नित्यता एवं अनित्यता पर विचार करते हुए आचार्य नागार्जुन का कहना है कि यदि कर्म परिपक्व होकर फल देने के समय तक बना रहता है तो वह नित्य होगा, अनित्य नहीं और यदि कर्मफल देने के समय तक समाप्त हो जाता है, तो वह फल नहीं देगा। इस प्रकार यदि हम कर्म को नित्य मानते हैं तो वह असंस्कृत होगा, जो कभी समाप्त नहीं होता और न कभी फल ही देता है। और, यदि उसे संस्कृत मानते हैं तो वह परिपक्व होकर फल नहीं देगा। अतः यह प्रतीत होता है कि कर्मफल का स्वभाव निश्चित नहीं । नागार्जुन का कहना है कि कर्म तो नि:स्वभाव है। नि:स्वभाव वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती वह अनुत्पन्न होता है और अनुत्पन्न का विनाश नहीं होता । ७६ यदि हम कर्म को नि:स्वभाव नहीं सस्वभाव मानते हैं, तो हमें उसे शाश्वत मानना पड़ेगा।" जैसा सर्वविदित है कि शाश्वत की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि वह नित्य होता है और नित्य अकृत होता है। अतः नित्य, अकृत, अकारण होता है। यहाँ नागार्जुन का मानना है कि अकारण कर्म का फल या बिना किए हुए कर्म का फल तो 'अकृत्याभ्यागत' दोष है।७८ इस प्रकार यदि अकारण, अकृत या नित्य कर्म को स्वीकार कर लिया जाता है तो यह भी स्वीकार करना होगा कि बिना किये कर्म का फल मिलता रहेगा। हमें फल के लिए शुभ-अशुभ कर्म की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। फलतः निर्वाण की इच्छा रखनेवाला व्यक्ति भी बिना ब्रह्मचर्य का निर्वाह किये ही अपने को कृतकृत्य समझेगा । अतः कर्म निःस्वभाव है। अब प्रश्न उठता है कि यदि कर्म ही
૩૮
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org