SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार १२९ तृतीय आर्यसत्य - दुःखों का नाश संभव है जब दुःख के कारण की जानकारी हो जाती है तब तो यह समझना ही चाहिए कि कारणों के नाश हो जाने पर दुःख का भी नाश होना संभव है। दुःख नाश की स्थिति को ही दुःख-निरोध कहते हैं । यही निर्वाण है। इस अवस्था को प्राप्त करने से जन्म का स्रोत बन्द हो जाता है। स्रोत के बन्द होने से संसार सर्वदा के लिए छूट जाता है। शरीर धारण करने से ही दुःख का अनुभव होता है, परन्तु जब शरीर धारण की प्रक्रिया ही समाप्त हो जाती है तो शरीर एवं संसारजन्य क्लेश का क्षय हो जाता है। जैसा कि हमलोगों ने ऊपर देखा कि अविद्या से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नामरूप, नामरूप से षडायतन, षडायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति, जाति से जरा - मरण यानी दुःख की उत्पत्ति होती है। यदि हम इसे निरोध करने की दृष्टि से देखें तो अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है, संस्कार के निरोध से विज्ञान का निरोध होता है, विज्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है, नामरूप के निरोध से षडायतन का निरोध होता है, षडायतन के निरोध से स्पर्श निरुद्ध होता है, स्पर्श के निरोध से वेदना निरुद्ध हो जाती है, वेदना के निरोध से तृष्णा निरुद्ध होती है, तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध होता है, उपादान के निरोध से भव निरुद्ध हो जाता है, भव के निरोध से जाति निरुद्ध हो जाती है और जाति के निरोध से जरा-मरण निरुद्ध हो जाता है । यही दुःखनिरोध का क्रम बताया गया है। इस निरोध की अवस्था का नाम ही निर्वाण है। निर्वाण प्राप्तकर मनुष्य जन्म ग्रहण नहीं करता, अमर हो जाता है। तृष्णा के नाश हो जाने से इसी जीवन में, जीवित काल में ही मनुष्य उस अवस्था को प्राप्त कर लेता है जिसे निर्वाण नाम से पुकारा जाता है। चतुर्थ आर्यसत्य - दुःखनाश के उपाय यह निर्वाण-मार्ग है। बुद्ध के समय अनेक प्रकार की विचारधाराएँ प्रवाहित हो रही थीं। उन्हें देखते हुए तथा साधना के समय प्राप्त विभिन्न अनुभवों के आधार पर बुद्ध ने मध्यममार्ग का प्रतिपादन किया। दुःख से मुक्त होने के लिए व्यक्ति को दो मार्गों का त्याग करना चाहिए १. आत्मा को नित्य समझकर नाना प्रकार के सुखों की कामना करना तथा २. शरीर की अवहेलना करके अर्थात् तप की प्रक्रिया में शरीर को क्षीण करके निर्वाण प्राप्त करने का प्रयास । Jain Education International इन दो अन्तों का त्याग कर बीच के मार्ग को अपनाना ही बुद्ध का उपदेश था जिसे उन्होंने अष्टांगिक मार्ग के नाम से उद्बोधित किया। इसके आठ अंग निम्नलिखित हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy